पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 35.pdf/११२

यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
८४
सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

शन पानेका हक है उसी प्रकार खादीके विकास कार्यमें लगे हुए लोग अन्तमें पायेंगे कि निजी तौरपर उन्होंने कुछ खोया नहीं है, बल्कि उलटे कतैयोंको, और कतैयोंके कारण उन्हें भी लाभ हुआ है। इसी उद्देश्यके लिए आपने मुझे ये सब थैलियाँ दी हैं। इस दृष्टि से देखनेपर इन थैलियोंको बहुत भारी नहीं माना जा सकता। आप दरिद्रना- रायणको कितना भी दें, कम ही है। हम लोग, जो शहरोंमें रहते हैं, उन करोड़ों मेहनतकशोंके बूतेपर ही जीवित रहते हैं, और खादी-कार्यके जरिये हम उन लोगोंको कुछ प्रतिदान दे सकते हैं। इसलिए मैं उन सज्जनोंको बधाई देता हूँ जिन्होंने इन पर्दानशीन महिलाओंके लिए एकसौ से अधिक चरखे भेंट किये हैं। क्योंकि यह भी उसी दिशा में उठाया गया कदम है। यदि ये बहनें त्याग-भावसे इन चरखोंपर काम करेंगी तो वह उनके तथा गरीब कतैयों, दोनोंके लिए कल्याणकारी सिद्ध होगा। और मैं आशा करता हूँ कि यह स्थान, जिसने अच्छे खादी-कार्यकी सम्भावनाएँ पहले ही दिखा दी हैं, इस दिशामें बराबर प्रगति जारी रखेगा।

मैं कल विरुधुनगरमें कुछ नाडर मित्रोंके साथ जिस विषयपर बात कर रहा था,[१] उसके बारेमें बतानेके लिए आपका कुछ समय लूँ तो शायद अनुचित न होगा। नाडर लोग उद्यमशील व्यापारी हैं। वे समृद्ध हैं, और जितने समृद्ध हैं उतने ही उदार भी हैं। उन्होंने अपने अन्दर कुछ अत्यन्त अच्छी और साफ रुचियाँ पैदा की हैं। वे एक अत्यन्त सुप्रबन्धित हाई स्कूल चला रहे हैं, जहाँ सभी लड़कोंको मुफ्त शिक्षा दी जाती है, चाहे वह नाडर हो या किसी अन्य समुदायका। उनके मन्दिर भी उनके स्कूलकी तरह सबके लिए खुले हुए हैं। उन्होंने जनताके उपयोगके लिए उद्यान बनाये हैं। यह समीके लिए अनुकरणीय है। इसलिए जब मुझे यह पता चला कि ये स्वच्छ जीवन व्यतीत करनेवाले लोग मदुरै और तिन्नेवेल्लीके बीच मन्दिरोंमें प्रवेश नहीं कर सकते तो मुझे कितना दुःख और आश्चर्य हुआ होगा, यह आप समझ सकते हैं। मुझे जब इस दुखद तथ्यका पता पता चला तो मुझे अपने हिन्दू धर्मपर लज्जा आई। मदुरैकी तीन बार यात्रा करनेके बावजूद मैं वहाँके महान मन्दिरमें प्रवेश नहीं कर सका। इस दुखद कथाको सुननेके बाद मुझे लगा कि यह एक वरदान ही है कि मैंने उस मन्दिरमें पैर नहीं रखे हैं। यों भी, जब मैं किसी मन्दिरमें उत्सुकतावश भी जाता हूँ तो मुझे एक गहरी लज्जाका अनुभव होता है, क्योंकि मैं जानता हूँ कि वह मन्दिर तथाकथित अस्पृश्योंके लिए खुला नहीं है। जहाँतक मेरा सवाल है, मैं किसी नायडी[२] में और अपने आपमें तनिक भी अन्तर नहीं देखता। मैं ऐसे किसी भी अधिकारका उपयोग नहीं करना चाहूँगा जो एक नायडीको प्राप्त नहीं है। और इसलिए जब मैं दक्षिणमें जाता हूँ तो मुझे अपने-आपको नायडी बतानेमें बहुत सुख मिलता है। लेकिन फिर भी मैं आदतकी मजबूरीके कारण यह मानने लगा हूँ कि ये तथाकथित अस्पृश्य और वे लोग जिनको देखनेमें भी छूत मानी जाती है और फिर वे लोग जिनके निकट आ जानेसे भी दूसरी जातियोंके लोग अपनेको अपवित्र हो गया मानते हैं, तथाकथित मन्दिरों

  1. १. देखिए " भाषण: विरुधुनगरकी सार्वजनिक सभा, २-१०-१९२७।
  2. २. एक जाति, जिसके पास आनेमें भी छूत मानी जाती है।