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५४. पत्र: सुरेन्द्रको

[३ अक्टूबर, १९२७ के पश्चात् ]

[१]

चि० सुरेन्द्र,

तुम्हारा पत्र मिला। तुम निरीक्षण जरूर करते रहो; मुझे जहाँ सन्देह होगा वहां मैं छोडूंगा नहीं। जब हम मिलेंगे तो मैं भी मामलेकी जाँच तो जरूर करूंगा मगर सही जाँच तो तुम खुद ही कर सकोगे। सहज सन्तोष करके न बैठ रहो, इतना ही काफी है। हमारी शुद्धि हमारे कार्योंमें उतरनी चाहिए। नाक न बहे इसका उपाय करो। इसके लिए नीलाथोथा काममें लाओ या कोई दूसरी चीज, सो महत्त्वपूर्ण नहीं है।

अब और अधिक नहीं लिखूँगा।

बापूके आशीर्वाद

गुजराती (एस० एन० ९४१५) की फोटो-नकलसे।

५५. पत्र : मीराबहनको

४ अक्टूबर, १९२७

चि० मीरा,

तुम्हारे जानेके बाद कोई दिन ऐसा नहीं गया जिस दिन मैंने तुम्हें लिखा न हो। फिर भी मुमकिन है कि कल (सोमवार) वाले पत्रके पहुँचनेके एक दिन बाद भी यह चिट्ठी तुम्हें न मिल पाये। मैं अब और भी दक्षिणकी ओर जा रहा हूँ; इसलिए हमारे बीचका फासला बढ़ता जा रहा है। मगर एक सम्भावना तो है कि यह तुम्हें कलके पत्रके एक दिन बाद मिल जाये। गर्मी इतनी तेज है कि अधिक लिखना मुश्किल है; फिर मुझे अभी होनेवाली सभामें जाने के लिए तैयार भी होना है। गर्मीके बाव- जूद मैं बिलकुल ठीक हूँ। तुम भी ठीक हो ?

सप्रेम,

बापू

अंग्रेजी (सी० डब्ल्यू० ५२८३) से।
सौजन्य : मीराबहन
  1. १. तिथिका अनुमान सुरेन्द्रकी नाक बहनेके उल्लेखसे लगाया गया है। देखिए पिछला शीर्षक।