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पत्र: सुरेन्द्रको

तुम अडयार जा सकी, इसकी मुझे खुशी है। तालाब और दूसरी चीजें जिनका तुमने उल्लेख किया है, मैंने नहीं देखीं ।

सप्रेम,

बापू

अंग्रेजी (सी० डब्ल्यू० ५२८२) से।
सौजन्य : मीराबहन

५३. पत्र : सुरेन्द्रको

मौनवार [ ३ अक्टूबर, १९२७]

[१]

चि० सुरेन्द्र,

तुम्हारा पत्र मिला। बड़ौदा या कहीं अन्यत्र जानेकी तुम्हें अन्तःप्रेरणा हो और छगनभाई अनुमति दें तो चले जाना। इतनी दूर बैठा हुआ मैं इससे ज्यादा नहीं कह सकता ।

अन्तमें तो मुझे दुःखी या सुखी करना आश्रमकी सामर्थ्यके बाहर है। आश्रमकी पूर्णता या अपूर्णताको मैं अपना ही प्रतिबिम्ब मानता हूँ। इसलिए अपने सुख या दुःख- का कर्ता मैं ही हूँ और यदि यह 'मैं' न रहे तो न सुख होगा, न दुःख। इस सम्बन्धमें मैं जो भी लिखता हूँ उसे इन वाक्योंके सन्दर्भमें पढ़कर ही उसका अर्थ समझना चाहिए।

आश्रमवासी वस्तुतः वे ही हैं जो अपनेको आश्रमवासी मानें। आश्रम-प्रार्थना इन्हींके लिए अनिवार्य है और दूसरे उन लोगोंके लिए जो उसे अनिवार्य मानें । बाल- कृष्ण चला गया है, यह मैंने तुम्हारे पत्रसे ही जाना । वह कहाँ गया है ?

तुम्हें भी सर्दी-जुकाम होता है, यह बात मुझे अच्छी नहीं लग सकती ।

बापूके आशीर्वाद

गुजराती (एस० एन० ९४०८) की फोटो-नकलसे ।

 
  1. १. महादेव देसाईंकी हस्तलिखित डायरीके अनुसार ।