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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

होता ही रहूँगा जबतक मैं ऐसा नहीं मानता कि वह जो कुछ कर रही है उस सबको देखते एक बुरी संस्था है। मेरा कार्यक्रम संलग्न है।

सप्रेम,

मोहन

अंग्रेजी (जी० एन० २६२१) की फोटो-नकलसे ।

४९. पत्र : घनश्यामदास बिड़लाको

१ अक्टूबर, १९२७

भाई घनश्यामदासजी,
आपका खत मिला है।

जमनालालजीके खतसे पता चलता है कि आप यूरोपसे स्वास्थ्य बिगाड़के आये हैं। अब कहीं आराम पाकर स्वास्थ्य दुरस्त करना आवश्यक समझता हूँ। भोजनकी पसन्दगी करनेमें मैं कुछ सहाय अवश्य दे सकता हूं। परन्तु उसके लिए तो कुछ दिनोंतक मेरे साथ रहना चाहिए।

आपने अपनी राय विषय विषयमें भेजी है वह ठीक किया।

असहयोगके कारण दो दल हो गये हैं ऐसा कुछ नहीं है। दो दल तो थे ही । जो-कुछ हुआ है वह प्रकारान्तर ही है। मेरा विश्वास कायम है कि असहयोगके सिवा हमारी शक्ति बढ़ ही नहीं सकती। लोग उसका चमत्कार समझ गये हैं, परन्तु उसको कुछ करनेकी शक्ति अबतक नहीं आई है। हिन्दू मुस्लिम झगड़ा उसमें और बाधा डाल रहा है। कौंसिलोंकी सहायकी चेष्टा मैं नहीं कर सकता हूँ। परन्तु मेम्बर चाहें तो खादी और मद्यपानके विषय में मदद दे सकते हैं। परन्तु मेम्बर लोग स्वार्थ, अज्ञान और आलस्यके लिए कुछ कर नहीं सकते हैं। खादीका काम मन्द और तेज चल रहा है। मन्द इस कारण कि हम परिणाम नहीं दे पाते। तेज इस कारण कि जितना हो रहा है वह स्वच्छ है और स्वच्छ होनेसे उसका शुभ परिणाम अवश्य होनेवाला है।

घनकी भूख तो मुझे हमेशा रहती है। खादी, अछूत और शिक्षाका कार्य करने में ही मुझे कमसे कम दो लाख रुपये आवश्यक रहते हैं। दुग्धालयका जो प्रयोग चल रहा है उसको आज रु०५०,००० दरकार है। आश्रमका खर्च तो है ही। कोई काम रुक नहीं जाता, परन्तु ईश्वर रोवा-रोवा कर धन देता है। मुझे उससे सन्तोष है। जिस काममें आपका विश्वास है और जितना उसके लिए दे सकें दें। मेरा भ्रमण इस वर्षके अन्ततक तो चलता ही रहेगा। जनवरी मासमें आश्रम पहुँचनेकी आशा करता हूँ ।