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सामंजस्य करना चाहिए और उसके आधारपर अपने जीवन्त वर्तमानको समृद्ध बनाना चाहिए । जो आलोचक उनके विचारोंको निरी स्वप्नलोककी कल्पना मानते थे उनसे उन्होंने कहा, "व्यक्ति भले ही अपनी कल्पनाके संसारको समाज द्वारा स्वीकृत होते न देख सके लेकिन उस कल्पनामें रहनेकी छूट उसे अवश्य है" (पृष्ठ २७१) ।

खादीकार्य में सहायता देनेकी अपील तो गांधीजी हर सभामें करते ही थे, लेकिन अपनी बात कहनेका उनका कुछ ऐसा विशेष ढंग था कि अपने श्रोताओंके साथ उनका आत्मीयताका सम्बन्ध बन जाता था । कनडुकातनमें दक्षिणके एक धनिक समाज चेट्टियार लोगों को सलाह देते हुए उन्होंने कहा कि वे अपनी समृद्धिका ऐसा तड़क-भड़क भरा प्रदर्शन न करें और अपनी दानवृत्तिका विवेकपूर्वक विनियोग करें (पृष्ठ १९) । कराइकुडीमें (खादी वस्त्रका) जो नीलाम किया गया उस अवसरपर श्रोताओंने उनपर अपने स्नेहकी जैसी-कुछ वर्षा की उससे वे गद्गद् हो गये (पृष्ठ ४१) । तूतीकोरिनमें गांधीजीने तमिल सीखनेके अपने प्रयत्नोंका जिक्र करते हुए बत- लाया कि वे 'तिरुकुरल' को मूल तमिलमें ही पढ़नेके लिए वैसा कर रहे हैं (पृष्ठ ९४) । इस प्रकार २७ अक्टूबरको एक स्नेह-भीने सन्देशके साथ उन्होंने दक्षिणसे विदा ली ।

अपनी दक्षिण-यात्रा के बीच ही गांधीजीको वाइसराय लॉर्ड इविनका निमंत्रण मिला कि वे २ नवम्बरको उनसे दिल्लीमें मिलें। इस सम्बन्धमें उन्हें विट्ठलभाई पटेलका सन्देश भी मिला था । उत्तर देते हुए गांधीजीने श्री विट्ठलभाईको लिखा

कि इस चर्चासे उन्हें अलहदा ही रहने दिया जाये क्योंकि जैसी कुछ स्थिति है उसमें उनका सहयोग कोई विशेष उपयोगी साबित नहीं होगा। और वाइसराय महोदयसे उनकी भेंटका जैसा कुछ परिणाम हुआ उससे गांधीजीको लगा कि इस सम्बन्धमें उनकी जो निराशा-भावना थी वह ठीक ही थी । श्री प्रभाशंकर पट्टणीको ८ नवम्बरके अपने पत्र में उन्होंने लिखा: “मुझे तो ऐसा लगा कि मेरे जैसे व्यक्तिको दिल्ली बुलानेकी कोई जरूरत ही नहीं थी। . . . क्योंकि वाइसराय दूसरोंका मत नहीं जानना चाहते थे बल्कि अपना मत ही जताना चाहते थे । इस मुलाकातमें जो कुछ हुआ उसके विविध विवरण परिशिष्ट ५ में दिये गये हैं।

१३ नवम्बरसे २९ नवम्बरतक गांधीजी लंकामें दौरा करते रहे। लंका और भारतके बीच जो पारस्परिक घनिष्ठ सम्बन्ध हैं, अपने भाषणोंमें उनका वे बार-बार उल्लेख करते रहे। वहाँ बौद्धोंको सम्बोधित करते हुए उन्होंने कहा: "गहरे विचारके बाद मेरी यह धारणा बनी है कि बुद्धकी शिक्षाओंके प्रधान अंग आज हिन्दूधर्मके अभिन्न अंग हो गये हैं। गौतमने हिन्दूधर्ममें जो सुधार किये, उनसे पीछे हटना आज हिन्दू भारतके लिए असंभव है। ... गौतम स्वयं हिन्दुओंमें श्रेष्ठ हिन्दू थे। उनकी नस-नसमें हिन्दूधर्मकी सभी खूबियाँ भरी पड़ी थी। वेदोंमें दबी हुई कुछ शिक्षाओंमें, जिनके सारको भुलाकर लोगोंने छायाको ही ग्रहण कर रखा था, उन्होंने जान डाल