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९९. पत्र: इकारोजको

दौरेपर
२० फरवरी, १९२७

प्रिय मित्र,

आपका पत्र मिला। मैंने खिलाफतके पक्षका समर्थन अत्याचारके आधारपर नहीं, मानवताके लिए किया था। उस छलपूर्ण प्रयत्नका, जो मैं समझता हूँ खिलाफतको नष्ट करनेके लिए किया गया था, प्रतिरोध किया ही जाना चाहिए था। मेरा प्रतिरोध अहिंसात्मक था। मेरे विचारमें, आन्दोलनके अभावमें हिंसाका जो विस्फोट अवश्यम्भावी था, उसे इस प्रतिरोधने रोका है। खिलाफत-आन्दोलनका निर्णय टर्कीपर किये जानेवाले अत्याचारोंको प्रोत्साहित करनेके लिए नहीं किया गया था। जहाँ कहीं निरंकुशताका बोलबाला हो, उसका अहिंसात्मक उपायोंसे प्रतिरोध किया जाना ही चाहिए।

हृदयसे आपका,

रेव॰ फा॰ इकारोज़


हेफा, जर्मन होसपिसी ऑफ सेंट चार्ल्स


फिलस्तीन

अंग्रेजी (एस॰ एन॰ ११७८५) की फोटो-नकलसे।

१००. पत्र: मथुरादास त्रिकमजीको[१]

२० फरवरी, १९२७

तुम भूल जाते हो कि तुम बापूकी भानजीके बेटे हो; अर्थात् मणिलाल तो तुम्हारा मामा है। बच्चे क्या माँ-बापको भेंट देते हैं? यह तो हिन्दुओंके रिवाजको ही भूलना हुआ। फिर भी यदि तुम्हारे पास बहुत ज्यादा रुपया हो गया हो तो मैं तुमसे गोरक्षा और चर्मालयके लिए कुछ लेनेको तैयार हूँ; मैं तो ऐसा आदमी हूँ कि तुम जितना रुपया दोगे उतना ले लूँगा। इसलिए यदि तुम्हें अटपटा न लगे तो तुम मेरी सलाह मानकर चुप बैठे रहो।

[गुजरातीसे]
बापुनी प्रसादी
  1. गांधीजीने यह पत्र बोलकर महादेव देसाईसे लिखाया था।