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पत्र: सुशीलाबहन मशरूवालाको

  लोग मुँह फेर लेते हैं। मैं साठ वर्षका हो गया हूँ इसलिए मेरी बुद्धि जाती रही है, ऐसा नहीं है। मेरे साथ तो सैकड़ों युवक काम कर रहे हैं। मैं नहीं जानता कि मैं कितने वर्ष जीऊँगा, मैं तो गंगाके किनारे बैठा हूँ इसलिए किसी चीजको बुरा समझते हुए भी उसे अच्छा मनवानेका प्रयत्न क्यों करूँगा। हाँ, यदि आप मुझे इसका विश्वास दिलाएँ कि मेरी प्रवृत्ति गलत है तो मैं आपके चरणोंमें बैठ जाऊँगा——वैसे ही जैसे परशुराम रामचन्द्रके चरणोंमें बैठ गया था। यदि मेरे हृदयको जीतनेवाला कोई व्यक्ति मिल जाये तो मैं उसे साष्टांग प्रणाम करूँ। किन्तु यदि आप बुद्धि और हृदयसे मुझे न जीत सकें तो फिर आपको मेरा खादी और गोरक्षाका काम सँभाल लेना चाहिए, उठा लेना चाहिए। इसके बिना उद्धार नहीं है।

[गुजरातीसे]
नवजीवन, २७-२-१९२७

७४. पत्र: सुशीलाबहन मशरूवालाको

रविवारकी रात [१३ फरवरी, १९२७]

चि॰ सुशीला,

तुम्हें एक पत्र[१] लिखा था; मिल गया होगा। इसके साथ चि॰ मणिलालका पत्र भेज रहा हूँ। इसे और मैंने जो पत्र उसे लिखा था, दोनोंको सँभाल कर रखना। मुझे उत्तर देना। पत्र नानाभाई और दूसरोंको पढ़वा देना। ऐसे विषयोंपर अपने बड़ोंसे बातचीत करनेमें लड़के और मुख्यतः लड़कियाँ संकोच करती हैं। तुम्हें तनिक भी ऐसा न करना चाहिए। तुम एक दूसरेका नाम लेनेमें भी संकोच न करना। बादमें यह संकोच दिक्कत पैदा करता है। इसमें मुझे कोई अर्थ दिखाई नहीं देता। मणिलाल भी संकोच कर रहा है। मैं उसे भी इस संकोचको छोड़नेके लिए लिखूँगा।

गोमतीबहनकी तबीयतका हाल लिखना। चि॰ किशोरलालको बादमें बुखार तो नहीं आया?

बापूके आशीर्वाद

गुजराती (सी॰ डब्ल्यू॰ ११२६) से।

सौजन्य: सुशीलाबहन गांधी

  1. देखिए "पत्र: सुशीलाबहन मशरूवालाको", १३-२-१९२७।