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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

मेरा मन मुझसे यही कहेगा कि धूलियाके लोगोंने कुछ और ज्यादा क्यों नहीं दिया। मैं वैश्य हूँ इसलिए ज्यादा माँगता हूँ ऐसी बात नहीं है। पर मुझे लगता है कि हिन्दुस्तानको शूद्रोंने नहीं गँवाया; क्षत्रियोंने नहीं गँवाया, ब्राह्मणोंने भी नहीं गँवाया, उसे तो वैश्योंने ही गँवाया है और अब उसे कोई वापस ले सकता है तो वैश्य ही ले सकते हैं। इतिहासमें ऐसे उदाहरण हैं जब वैश्योंने अभिमानपूर्वक यह कहा है कि हमने सरकारकी मदद की, उसकी अमुक सेवा की और अब समय आया है कि सरकार हमारी मदद करें तो अच्छा हो। रमेशदत्तने भी हमें यही बताया कि हिन्दुस्तानको व्यापारियोंने ही दूसरोंके हाथमें दिया।

व्यापार करनेमें शर्मकी कोई बात नहीं है। यदि व्यापार योग्य रीतिसे किया जाये तो इसमें कोई निन्दनीय बात नहीं है। अंग्रेज यहाँ व्यापारीकी तरह आये थे; अपने इसी व्यापारकी रक्षाके लिए वे क्षत्रिय बने और इसी व्यापारके आधारपर स्थापित अपने राज्यकी रक्षाके लिए ब्राह्मण भी बने। वर्णाश्रम धर्म यह नहीं कहता कि वैश्य ब्राह्मण न बने या माँ और बहनकी रक्षाके लिए क्षत्रिय न बने। वह इतना ही कहता है कि वैश्य धर्मकी विशेषता वाणिज्यमें है——कृषि, गोरक्षा और वाणिज्यमें। अंग्रेज [मूलतः] व्यापारी थे किन्तु उन्होंने अपनी बुद्धि, ज्ञान और शौर्यका समुच्चय साधा और उनकी शक्तिसे चकित होकर अपने वर्णधर्मको भूलकर हमने होश खो दिया, हम नामर्द और देशद्रोही बने। हम वैश्यके स्वाभाविक धर्मको भूल गये। अब वकील, डाक्टर, ब्राह्मण या क्षत्रिय स्थितिको नहीं सुधार सकते; उसे तो वैश्य ही सुधार सकते हैं। यदि वे अपने स्वधर्मका पालन करें, देशके लिए कृषि, गोरक्षा और व्यापारकी साधना करें तो वह सुधर सकती है। आपके मानपत्रका यही जवाब है। आपकी काली टोपियाँ, आपकी स्त्रियोंकी साड़ियाँ, लज्जाकी, गुलामीकी पोशाकें हैं। और व्यापारी ही ये टोपियाँ और ये साड़ियाँ लोगोंको बेचते हैं। आपको तो कच्चे मालकी रक्षा करनी चाहिए थी। किन्तु आपने उसीका व्यापार शुरू कर दिया। गायकी रक्षा करनेके बदले उसका भी व्यापार करना शुरू कर दिया। इसीसे आज आपकी बुद्धि भ्रष्ट हो गई है। आप लोग मिलें खड़ी करते हैं, पश्चिमकी राक्षसी सभ्यताका अनुकरण करते हैं और लोगोंकी शक्तिका शोषण करनेवाली चीजें बेचते हैं। यदि पश्चिमके लोग पूर्वके लोगोंका शोषण बन्द कर दें, तो उनकी ५० प्रतिशत मशीनें बन्द हो जायें। अब आप भी इसी रास्ते चल रहे हैं। यदि आप स्वराज्यके लायक बनना चाहते हैं, तो जिसे मैं झूठा व्यापार कहता हूँ उसे छोड़ें और सच्चा व्यापार अपनाएँ। आपका सीधा-सादा धर्म यही है। 'भगवद्गीता' का [आदर्श] वैश्य करोड़पति नहीं बनना चाहता; वह तो देशको कुटुम्ब मानकर देशके हितके लिए अपने धर्मका पालन करता है। आप अपनी बुद्धिका कुछ उपयोग करें, थोड़ा विचार करें, ब्रह्मचर्यका पालन करें, तो आपको अपना धर्म स्पष्ट समझमें आ जायेगा। यदि आपको अपना कर्त्तव्य समझमें आ जाये तो देशमें ६० करोड़का कपड़ा विदेशसे आना बन्द हो जाये और ९ लाख खालें विदेशमें न भेजी जायें। परन्तु आज मैं आप लोगोंसे आदर्श गोशाला बनानेको या आदर्श चर्मालय बनानेको कहता हूँ तो आप