पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 33.pdf/१२३

यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
८५
भाषण: धूलियामें

  सफाईसे सम्बन्धित छोटी-छोटी बातोंको भी बिलकुल ही नहीं जानता है। दक्षिण आफ्रिकी यूरोपीयोंमें जातीय पूर्वग्रहकी निन्दा की जा सकती है, लेकिन अपने शहरोंको स्वस्थ और साफ रखनेके उनके प्रयास उत्साहपूर्ण और अनुकरणीय हैं। ऐसा न कहिए कि आपका सारा समय राजनीतिमें लग जाता है और अन्य बातोंके लिए आपके पास कोई समय नहीं है। यह तो एक लचर बहाना है। स्वराज्य प्राप्त करनेकी हमारी सामर्थ्यमें ही अपने गाँवों और शहरोंकी सफाईपर भी पूरा ध्यान दे सकनेकी सामर्थ्य शामिल है और जब हम उस सामर्थ्यका परिचय देंगे तो हमारे और स्वराज्यके बीच संसारकी कोई भी चीज आड़े नहीं आ सकेगी। आप निश्चित तौरपर ऐसा तो मानते ही होंगे कि हमें उतना कायम ही रखना चाहिए जितना हमारी सामर्थ्यंके बलपर प्राप्त हो चुका है। हमारी कुछ स्थानीय संस्थाएँ केवल उन्हीं सड़कोंको साफ रखती हैं, जिनके सरकारी अफसरों द्वारा प्रयोगमें आनेकी सम्भावना होती है। वे उन सड़कोंकी कुछ परवाह नहीं करते जिनका उपयोग गरीब ग्रामीण भाइयों और उनके बैलों आदिको करना होता है। वे निरपवाद रूपसे हर जगह बुरी हालतमें पड़ी हुई हैं। क्या हम एक गाँवसे दूसरे गाँवको जोड़नेवाली सड़कों को ज्यादा सुगम और बेहतर नहीं बना सकते और क्या इस प्रकार ग्रामीणों तथा उनके पशुओंकी तकदीर थोड़ी बहुत नहीं सुधार सकते।...

धूलियाके व्यापारियोंका आग्रह था कि वे गांधीजीको अलगसे मानपत्र और थैली भेंट करेंगे। मानपत्रमें उन्होंने कहा कि गांधीजी उनके अपने समाजके व्यक्ति हैं, क्योंकि वे भी तो वणिक ही हैं। उनके मानपत्रका उत्तर देते हुए गांधीजीने उन्हें उससे कुछ अधिक दे दिया, जितना कि वे इस सौदेमें पानेकी आशा रखते थे।[१]

आपने मुझे यह ठीक ही याद दिलाया कि मैं एक गरीब वणिक पुत्र हूँ, वैश्य हूँ और वैश्य होनेके कारण ही मैं भारतके गरीब लोगोंके लिए एक भारी व्यापार चला रहा हूँ। और चूँकि व्यापारके सिवा मुझे गोरक्षाका काम भी करना चाहिए इसलिए मैंने गोरक्षाका धन्धा भी उठा लिया है। आज शुद्ध भावसे चलाया जानेवाला व्यापार पूर्णतया नष्ट हो चुका है और इसी तरह विवेकपूर्ण गोरक्षा कहीं देखनेमें नहीं आती। मैं तो स्वयंको एक विवेकशील व्यापारी मानता हूँ, इसलिए ये दो धन्धे मैं आपके सामने रख रहा हूँ। मुझमें वणिक-बुद्धि है, क्षत्रियत्व है और थोड़ा-बहुत ब्राह्मणत्व भी है। पर इस वर्ष तो इन सभी बातोंको छोड़कर मैं एक कंजूस बनिया-भर बन जाना चाहता हूँ और जिस तरह एक लोभी बनिया पाई-पाईका हिसाब रखता है, मैं भी आपके सामने पाई-पाईका हिसाब रखना चाहता हूँ। इसलिए यद्यपि अभी आपने ४,१०० रुपये दिये हैं और शायद कलतक ५,००० पूरे कर देंगे तब भी

  1. यहाँ तकका अंश अंग्रेजी साप्ताहिक यंग इंडियाके २४ फरवरी और ३ मार्चके अंकोंमें प्रकाशित महादेव देसाईकी "साप्ताहिक चिट्ठी" से लिया गया है, लेकिन "साप्ताहिक चिट्ठी" में इससे भागे वणिकोंकी सभामें दिये गये गांधीजीके भाषणकी जो रिपोर्ट प्रकाशित हुई है, उससे अधिक विस्तृत और पूर्ण रिपोर्ट २७-२-१९२७ के गुजराती नवजीवनमें छपी है। इसलिए इसका अनुवाद नवजीवनसे ही किया जा रहा है।