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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

  गुना दाम देकर भी इंग्लैंडमें बना कपड़ा ही पहनते थे। हॉलैंडकी लेसका आयात रोकनेके लिए तो इंग्लैंडमें सख्त कानून बनाया गया था। तो क्या मैं बहुत कठिन बात बता रहा हूँ? विलायतका कपड़ा मुफ्त मिले तो भी उसे त्याग कर ज्यादा दामपर खादी ही खरीदी।

आपको मालूम होगा अमेरिकामें रोजकी आमदनी दो रुपये है और अपने यहाँ सिर्फ डेढ़ आना है। और इस डेढ़ आनेमें प्रताप सेठ जैसे लखपतिकी लाखोंकी आमदनी भी शामिल है। यदि इस हिसाबमें इस आमदनीको न गिनें तो अपने यहाँ लोगोंकी औसत आय डेढ़ आनेकी भी नहीं है। इस डेढ़ आनेकी कमाईको दुगुना करनेके लिए यदि कोई मुझे चरखे जैसा दूसरा सुलभ और आसान मार्ग बता दे तो मैं चरखेको जला दूँ। आप करोड़ोंको भिखारी बनाना तो नहीं चाहते होंगे? जिसके दो हाथ दो पैर हों उसे भिखारी बना देना, इससे बढ़कर मनुष्यत्वका हनन करनेवाली और कोई वस्तु नहीं है। भिक्षा उस ब्राह्मणका अधिकार है जो ब्रह्मको जाननेवाला, उसका आचरण व उपदेश करनेवाला हो। उसकी वकालत करनेवाले या आलस्यमें दिन गँवानेवाले ब्राह्मणको उसका अधिकार नहीं है। और इसके बाद भिक्षा माँगनेका अधिकार अपंगको है। इन दोके सिवा किसी अन्यको भिक्षा देना घोर पाप है। यह घोर पाप, घोर अत्याचार जगन्नाथपुरीमें चलता है। इसे रोकनेके लिए हिन्दुस्तान के करोड़ों बेकार लोगोंके हाथमें चरखा देना जरूरी है। इससे ज्यादा मैं आज कुछ कहना नहीं चाहता।

[गुजरातीसे]
नवजीवन, २०-२-१९२७

६७. पत्र: मीराबहनको

दुबारा नहीं पढ़ा

डोंडाइच
रविवार [१३ फरवरी, १९२७][१]

चि॰ मीरा,

यह रविवारका सवेरा है, प्रार्थनासे पूर्वका समय। लोग अभी उठ ही रहे हैं।

दौरेका अगला कार्यक्रम संलग्न है।

मुझे तुम्हारा सबसे ताजा पत्र मिल गया है।

मैं तुम्हें यह बताना भूल गया कि चर्चके पादरी और दूसरे लोग अब तुम्हारे करीब आते जा रहे हैं, यह देखकर मुझे कितनी प्रसन्नता हुई है। क्योंकि तुम्हारा उनके प्रति केवल शुद्ध प्रेमके सिवाय, जो प्रतिदिन शुद्धतर होता जा रहा है, और

  1. महादेव देसाईंकी "साप्ताहिक चिट्ठी" (यंग इंडिया, २४-२-१९२७) के अनुसार गांधीजी १२ फरवरीको डोडाइचमें थे, परन्तु रविवार १३ फरवरीको था।