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६३. भाषण: जलगाँवमें[१]

१० फरवरी, १९२७

इस दौरेकी विशेषताओंमें से एक बात यह थी कि सभाओंमें जहाँ-कहीं मानपत्र मंजूषामें रखकर दिये जाते थे, मंजूषाको नीलाम कर दिया जाता था। इस कामका प्रारम्भ जलगाँवसे हुआ और यह प्रक्रिया धूलियातक जारी रही। गांधीजीने कहा:

मित्रो, आपको मालूम होना चाहिए कि सिवाय उन वस्तुओंके जिनका विशेष कलात्मक मूल्य है, और जिन्हें मैं प्रो॰ मलकानीको[२] जो गुजरात विद्यापीठके लिए कलात्मक वस्तुओंका संग्रह कर रहे हैं, सौंप सकता हूँ, और कुछ अपने साथ नहीं ले जा सकता। एक तो मैं अपने साथ स्टीलके ट्रंक लेकर नहीं चलता और फिर इन मंजूषाओंको आश्रममें रखनेका प्रबन्ध भी नहीं है। इसलिए मेरे लिए केवल इन्हें बेच देना ही एक उपाय बच जाता है। आप ऐसा न समझें कि जिस स्नेहसे वे दी जाती हैं, ऐसा करके मैं उनकी उपेक्षा कर रहा हूँ, या उनका महत्त्व कम कर रहा हूँ। इसके विपरीत उस कार्यके लिए, जो मुझे सबसे ज्यादा प्रिय हैं, और जिस कार्यके लिए आप मुझपर अपनी स्नेहवर्षा कर रहे हैं इन मंजूषाओंको पैसेमें बदल कर, मैं उस प्रेमका यथासम्भव सबसे अच्छे ढंगसे प्रतिदान देना चाहता हूँ।

इस भावनाकी सब जगह प्रशंसा की गई। इसका परिणाम यह हुआ कि शहादे जैसे गाँवमें एक मामूली सी मंजूषाके ३०० रुपये मिले और डोंडाइचमें तश्तरी और दूसरी चीजोंके २०० रुपयेसे ऊपर आये।

[अंग्रेजीसे]
यंग इंडिया, २४-२-१९२७

६४. पत्र: फूलचन्द शाहको

धूलिया
शुक्रवार [११ फरवरी, १९२७][३]

भाईश्री ५ फूलचन्द,

आपका पत्र मिला। ऐसा लगता है कि परिषदके बारहवें स्थानमें राहु है। इसलिए हमें यज्ञ करना पड़ेगा।

मण्डपके लिए अभीतक जमीन न मिले, ऐसी पराधीनता तो असह्य होनी चाहिए। क्या परिषद किसी बगीचे में——उमर सेठके अथवा किसी अन्यके बगीचे में——

  1. महादेव देसाईंकी "साप्ताहिक चिट्ठी" से।
  2. ना॰ र॰ मलकानी।
  3. ऐसा लगता है कि यह पत्र गांधीजीने १३ फरवरीको धूलिया पहुँचनेसे पहले लिखा होगा।