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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

  पूरा सन्तोष प्रकट किया है। हम यही चाहते हैं कि उनकी आशाएँ पूरी हों। श्री शास्त्रीने भारतीय प्रवासियोंको यह सलाह भी दी है, 'यदि आप लोग, जो भारतसे यहाँ आये हैं उचित व्यवहार करेंगे तो आपको अपने उचित अधिकार जल्दी ही मिल जायेंगे...और उतने सब अधिकार जिन्हें आप पाना चाहते हैं। श्री शास्त्रीने इस प्रकार भारतीय प्रवासियोंको यह आशा बँधा दी है कि उन्हें पूर्ण नागरिक अधिकार भी दिये जा सकते हैं। भारतीयोंको नागरिक अधिकार चाहे दिये जायें, चाहे न दिये जायें, लेकिन यदि भारतीयोंको सतानेकी और खदेड़नेकी जो नीति इस समय काममें लाई जा रही है, वह त्याग दी जाये और उन्हें बिना छेड़छाड़ किये और सताये बिना ईमानदारीसे जीविका कमाने दी जाये तो भी परिषदमें किया गया श्रम व्यर्थ नहीं माना जायेगा।

यदि उचित व्यवहारकी सलाह संघ-सरकारको[१] दी जाती तो अच्छा होता। जिस समय हमें यह आशा बँधाई जाती है कि भारतीयोंका प्रश्न सन्तोषजनक रूपसे हल हो गया है और हमें यह कहा जाता है कि [गोरोंके] हृदयमें परिवर्तन हो गया है, उस समय भी हम देखते हैं कि प्रान्तीय सरकारें संघ सरकारकी अनुमतिसे भारतीयोंको उनके आजीविकाके साधनोंसे वंचित करने और उनको उनके स्थानोंसे उखाड़ने की नीतिपर लगातार अमल करती जा रही हैं।

जिस क्षेत्रको पीटरमैरित्सबर्गको नगर परिषदने यूरोपीयोंका क्षेत्र कहा है, उस क्षेत्रसे वह भारतीय व्यापारीयोंके परवाने नये करनेसे इनकार करके उन्हें एक-एक करके हटाती चली जा रही है। इस प्रकार अनेक पुरानी व्यापारी बेढ़ियोंको इन स्थानोंमें अपना-अपना कार-बार बन्द कर देना पड़ा है और उन्हें उसका कोई मुआवजा भी नहीं दिया गया है। ३१ दिसम्बरके 'इंडियन ओपिनियन' में छपी एक खबरसे हमें मालूम हुआ है कि कई दर्जियों, मोचियों और नाइयोंको, जो वहाँ पिछले दस, पन्द्रह और बीस वर्षोंसे अपने-अपने धन्धे चला रहे थे, केवल भारतीय होनेके कारण परवाने देनेसे इनकार कर दिया गया है और अपील किये जानेके बाद प्रत्येक मामलेमें नगर परिषदने परवाना अधिकारीके उन फैसलोंको कायम रखा है। गोलमेज परिषदके चलते समय भी ऐसा होना बड़े आश्चर्यकी बात है और यह इस बातका एक ज्वलन्त प्रमाण है कि कौनसा पक्ष उचित व्यवहार नहीं कर रहा है।

[अंग्रेजीसे]
यंग इंडिया, १०-२-१९२७
  1. यहाँ साधन-सूत्रमें भूलसे "भारत सरकार" छप गया है। यंग इंडिया १७-२-१९२७ में इस भूलको सुधार दिया गया है।