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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

ही चीज भली लगती है, हार्दिक बातचीत और एक दूसरे की कठिनाइयोंपर खुलकर चर्चा। मैं चाहूँगा कि आप यदि इस नतीजेपर पहुँचें कि इस यात्रासे किसी बड़े लाभकी आशा नहीं की जा सकती तो आप मुझसे पूछे बिना इसे रद कर दें । मेरी अपनी राय है कि चीनकी मौजूदा अशांत स्थितिमें यात्रा विफल जायेगी। मेरा संदेश विशुद्ध अहिंसा और सत्यका संदेश है। जब लोगोंमें उत्तेजना व्याप्त हो और उनका खून उबल रहा हो, तब वे ऐसा संदेश ग्रहण करनेके योग्य नहीं होते। इसलिए असंदिग्ध और संगत पुकारपर ही मुझे चीन जाना चाहिए। यदि चीनके हमारे मित्र आग्रह ही करें और आप भी इस नतीजेपर पहुँचें कि यात्रा करनी चाहिए, तो भी आप अन्तिम फैसला निश्चय ही मुझपर छोड़ेंगे। मेरे पास सारा ब्यौरा यथासम्भव मुकम्मिल भेज दिया जाये ताकि में उचित निष्कर्षपर पहुँच सकूँ। ऐसे सभी मामलोंमें मुझे किसी निर्णयपर पहुँचनेमें प्रार्थना मदद देती है।

हृदयसे आपका,
 

श्री ए० ए० पॉल

किलपॉक, मद्रास

अंग्रेजी प्रति (एस० एन० ११३७८) की फोटो-नकलसे ।

१३५. पत्र : विधानचन्द्र रायको

वर्धा
 
१० दिसम्बर, १९२६
 

प्रिय मित्र,

मैंने महादेवको भेजा गया आपका तार देखा है। मुझे याद नहीं पड़ता कि मुझे आपका कोई पत्र मिला था; और रहा आपका तार, सो उसका जवाब मैंने वर्धासे डाक द्वारा आपको भेजा था, और आशा है कि वह अबतक आपको मिल गया होगा। अब यह तय है कि मैं गौहाटी जा रहा हूँ। मैं २२ को यहाँसे रवाना होकर २३ की सुबह कलकत्ता पहुँचूँगा और उसी दिन गौहाटीके लिए गाड़ी पकड़ेंगा । मैं नहीं समझता कि जो चन्द घंटे में कलकत्तेमें रहूँगा, उसमें आप मुझसे वह रेस्म अदा कराना चाहेंगे।

१. चीन इस समय एक तरहकी गृहयुद्धकी स्थितिसे गुजर रहा था। विभिन्न प्रान्तोंके अधिपति प्रभुसत्ताके लिए एक दूसरेसे संघर्ष में लगे थे और व्यांगकाई शेकके अधीन कोमिनतांग इस वक्ततक प्रभावशाली केन्द्रीय सत्ताके रूप में प्रतिष्ठित नहीं हो सका था।

२. देखिए "पत्र : विधानचन्द्र रायको", ९-१२-१९२६ ।

३. अनुमानतः यह चित्तरंजन सेवासदनके एक हिस्सेका शिलान्यास करनेकी बात थी। यह रस्म गांधीजीने २-१-१९२७ को अदा की। देखिए " भाषण : चित्तरंजन सेवासदन, कलकत्तामें”, २-१-१९२७ ।