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५. मढडा आश्रमके बारेमें

मढडा आश्रम और भाई शिवजीके बारेमें मैंने जो लेख[१] लिखा था उसका उत्तर उन्होंने अखबारोंमें भेजा था। वही उत्तर अब उन्होंने प्रकाशनके लिए मेरे पास भेजा है। दैनिक अखबारोंमें वह उत्तर प्रकाशित हो चुका है इसलिए मैं उसे प्रकाशित करनेकी आवश्यकता नहीं समझता। लेकिन उसका कुछ भाग जिसमें मेरे साथ उनके सम्बन्धोंका उल्लेख है, जनोपयोगी है, इसलिए उसका उत्तर में यहाँ देता हूँ।

भाई शिवजीके लेखको पढ़कर मुझे दुःख हुआ है। उन्होंने “उलटा चोर कोतवालको डाँटे की रीति अखत्यार की है।

भाई शिवजी और मेरे बीच मतभेद नहीं है किन्तु भाई शिवजीने जिन बातोंको स्वयं स्वीकार किया है उनके आधारपर मैंने उनके चरित्रके तथा कामकाजकी उनकी व्यवस्थाके बारेमें अमुक राय स्थिर की है। अपनी यह राय मैंने काठियावाड़ राज- नीतिक परिषद् के सम्मुख रखी और आवश्यक जान पड़नेपर उसे 'नवजीवन' में प्रकाशित करनेका विचार किया। इस विचारको कार्यान्वित करनेके पहले मैंने भाई शिवजीको लिखा ताकि मेरे हाथों उनके प्रति कोई अन्याय न हो। प्रश्न यह था, भाई शिवजीके बारेमें मुझे अपनी राय प्रकाशित करनी चाहिए या नहीं। इसे मतभेदका नाम नहीं दिया जा सकता।

इसमें कोई सन्देह नहीं कि पंचकी बात करनेवाला में ही था। यह भाई शिवजीके सन्तोषके लिए था, मेरे सन्तोषके लिए नहीं। मेरे ऊपर कोई आरोप नहीं है। एक सार्वजनिक व्यक्तिके नाते अपने एक साथीपर लगाये गये आरोपोंकी जाँच करनेका कर्त्तव्य मेरे ऊपर आ पड़ा। में यह जाँच कर रहा था और इस सम्बन्धमें मैंने जो-जो कार्रवाई की उस उस कार्रवाईसे भाई शिवजीको अवगत करता गया। अन्तमें उनसे मिला। मिलनेपर उन्होंने जो स्वीकार किया वह इतना पर्याप्त था कि फिर मेरे लिए ज्यादा कुछ करनेको नहीं रह गया। भाई शिवजीने अपने मुंहसे अपने-आपको अपराधी ठहराया। बादमें जब उसी दिन परिषद् समितिके आगे यह बात रखी गई और मेरे लिए उसे 'नवजीवन' में प्रकाशित करना अनिवार्य हो गया तब भाई शिवजीने अपना रूप बदला।

अब यदि भाई शिवजी अथवा उनके स्नेही मित्र भाई शिवजीने क्या-क्या दोष स्वीकार किये इसका ब्योरा माँगते हों और मैंने जो जाँच की थी उसमें क्या था यह भी जानना चाहते हों तो इस हकीकतको उन्हें लिख भेजने के लिए में तैयार हूँ इस सिलसिले में उनके साथ अथवा अन्य लोगोंके साथ मैंने जो पत्र-व्यवहार किया उसे यदि भाई शिवजी और उनके स्नेही मित्र प्रकाशित करना चाहते हों तो उन्हें इसकी छूट है। मैं स्वयं उसे प्रकाशित कर पाठकोंका समय नहीं लेना चाहता।

  1. देखिए खण्ड ३१, पृष्ठ ४९०-९२।