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'गीता-शिक्षण'

तीसरा अध्याय साधारण व्यक्तिके लिए मानो रजत्-पात्र है। बड़ा उपयोगी है।

[ ११ ]

हमने देखा कि कर्मके बिना ईश्वर भी क्षण भर नहीं रहता। तब फिर हम मोक्ष कैसे पा सकते हैं ? जवाब दिया गया कि देही देहके कर्म करे । आत्माका उन कर्मोंसे कोई सम्बन्ध नहीं है। लम्पट लोगोंने इसका उलटा अर्थ लगाया। किन्तु जो वास्त- विक बात है, वह समझी जा सकती है। वह बात यह है कि देहबन्धनका अर्थ ही कर्म है। यदि देह न रहे तो कर्म भी शेष न रहें। ईश्वर देहधारी नहीं है, उसके लिए कोई कर्म आवश्यक नहीं है। किन्तु देहातीत होते हुए भी ईश्वर कर्म किये बिना नहीं रहता। अर्थात् उसे देहधारी कहा जा सकता है क्योंकि सारा संसार ही उसका है। यदि हम देहातीत ईश्वरकी कल्पना करें तो वह निराकार है। यदि आत्मा इतना सोच ले कि देह, देहका काम करती रहे, तो स्वयं आत्मा बन्धनसे मुक्त हो जाये । पर कैसे जाना जा सकता है कि अमुक कर्म देहके द्वारा ही हो रहा है ? बिना अहंकारके कर्म संभव नहीं है। आत्माहीन देहसे तो कर्म होना असम्भव है। यह एक दूसरी उपाधि हुई और इसका यह अर्थ हुआ कि आत्मा कर्ता बन जाता है और इसका अर्थ यह निकला कि अभिमानी आत्मा देहमें स्थित होकर काम करता रहता है। इसलिए तीसरे अध्यायमें प्रश्न किया गया कि ऐसी अवस्थामें क्या किया जाना चाहिए । 'परोपकार: पुण्याय पापाय पर पीड़नम्'; उत्तरमें कहा गया कि जिस काममें अधिकसे-अधिक परोपकार हो, वह काम किया जाये । और यह मानकर किया जाये कि वह अधिकसे-अधिक अलिप्त रहकर किया जा रहा है। जब कर्त्ता होनेका हमारा अभिमान कमसे-कम होगा तब कर्मकी गति सर्वाधिक तीव्र होगी । जो एक मील प्रति घंटेकी स्वाभाविक गतिसे निरन्तर चल रहा है वह साठ मील प्रतिघंटा दौड़नेवाले व्यक्तिकी अपेक्षा अपनी मंजिलपर जल्दी पहुँचेगा, क्योंकि पहला व्यक्ति अपनी आत्माके आनन्दमें चलता चला जायेगा जबकि दूसरा वृत्तिका चंचल और संशयी है; उसका इतना तेज दौड़ना भी ज्यादातर निरर्थक हो जायेगा। यदि हम अभिमानमुक्त होकर काम करते हैं तो हमारे कामकी गति धीमी भले ही हो, हम उसे परिणामतक निश्चित ही पहुँचा देंगे। यज्ञार्थ और परोपकारार्थ अनन्त कर्म किये जा सकते हैं। देखना इतना ही चाहिए कि हमारा कर्म देहके स्वार्थको साध रहा है अथवा आत्माके। ऐसा कहना कि व्यक्ति परोपकारके लिए पैदा होता है, एक ही दृष्टिसे सत्य है; क्योंकि अन्ततोगत्वा तो वह अपनी सारी प्रवृत्तियाँ स्वार्थके कारण ही चलाता है। किन्तु यदि यह स्वार्थ आत्मासे सम्बन्धित हो तो उसकी वह प्रवृत्ति परोपकार प्रवृत्ति ही होगी। उसके सारे कार्य सेवा-धर्मके अंग बन जायेंगे ।

इसीलिए भगवानने इस प्रसंगका समारोप करते हुए 'श्रेयान् स्वधर्मो विगुण:

अर्थात् स्वधर्म चाहे गुणरहित भी हो और दूसरेका धर्म गुणयुक्त हो तो भी दूसरेके धर्मकी अपेक्षा अपना धर्म अच्छा है, ऐसा कहा । अर्जुनको दूसरेके कामने आकर्षित

१. साधना-सूत्र में तारीख नहीं दी गई है।

२. गीता, ३, ३५ ।