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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

तो श्वासोच्छ्वासमें भी होती रहती है। यह अनिवार्य हिंसा है, इसलिए क्षंतव्य है। इस अनिवार्य हिंसाके बिना शरीर-यात्रा नहीं चलती। होमियोपैथीका सिद्धान्त है कि रोग जिस कारणसे हुआ हो उस कारणके सूक्ष्मातिसूक्ष्म रूपको औषधिकी तरह । इस तरह यदि इस हिंसामय जगत्को अहिंसामय होना है तो हम जैसे-जैसे अधिक अहिंसामय होते जायेंगे, वैसे-वैसे प्रगति होगी। किन्तु यदि हम हिंसाको हिंसासे मिटाना चाहें, तो परिणाम विपरीत आयेगा । अकर्मका अर्थ यह हुआ कि व्यक्ति कर्म और हिंसाकी मात्राको कम करता चला जाये । प्रवृत्तियोंकी तलाश करता न फिरे तो वह विचार-मात्रसे कर्म कर सकने योग्य स्थितिमें आ जायेगा । कर्मके अंशके बिना न [ शुद्ध ] भक्ति सम्भव है, न [ शुद्ध ] ज्ञान । हम इसपर कल विचार करेंगे ।

[४]

रविवार, ७ नवम्बर, १९२६
 

कर्म-मात्र हिंसा है, इसलिए हमारा आदर्श तो यह है कि हम कर्म-मात्रमें से अर्थात् संसारमें से छूट जायें । संसारमें से छूट जायें इसका यह अर्थ नहीं है कि हम संसारके लोपकी इच्छा करें या चाहें कि प्रलय हो जाये । यदि व्यक्ति स्वयं स्वेच्छासे केवल अपनी ही हलचलको समेटकर घर बैठ जाये तो वह घर ही उसके लिए वैकुंठ हो जायेगा । वह ऐसा समझ ले कि नाम-रूपवाला संसार क्षणिक है और क्षणिकमें लीन रहनेसे क्या ? किन्तु ऐसा हो नहीं पाता । जोर-जबरदस्तीसे संसारका लोप नहीं हो सकता और न सारे संसारको इस तरह मोक्ष दिया जा सकता है। इसलिए प्रत्येक व्यक्तिको अपना-अपना मोक्ष प्राप्त करना है। यह किस प्रकार सम्भव हो ? आत्म- हत्याके द्वारा ? तब तो देह उससे चिपका ही रहेगा। इस तरह मोक्ष पाना प्रकृतिके विरुद्ध है । संसार अथवा देहका त्याग तो मानसिक ही करना है । यदि कर्म-मात्र हिंसामय और दोषमय है, तो हमारे द्वारा कर्मका मानसिक त्याग किया जा सकता चाहिए ? तब क्या मानसिक त्याग करके हम चाहें जो काम कर सकते हैं? नहीं । हम अपने मनके द्वारा अनेक वस्तुओंकी इच्छा करते रहते हैं। सर्वथा मानसिक त्याग कर देनेपर असंख्य कर्म अपने-आप समाप्त हो जायेंगे। तब हम इस संसारका वैसा उपयोग कर सकेंगे जैसा किसी निःसत्व वस्तुका किया जा सकता है । 'जली डोरी- जैसी आकृति-मात्र " मानकर; किन्तु जली डोरी भी थोड़ी-बहुत जगह तो लेगी ही। धूलके कण होकर उड़ जानेपर भी वह हवामें कहीं-न-कहीं तो रहेगी ही । आकृति समाप्त हो जाये और कण भी विलीन हो जायें तो हम कहेंगे कि सब-कुछ चला गया । समुद्र न घटता है, न बढ़ता है, इसी तरह ईश्वर भी । रजकण अपने स्वभावके अनुसार ईश्वरमें मिल गये । मानसिक त्याग कर दिया, तो सारे काम शून्य हो जाते हैं। फिर कर्त्तव्य क्या है, उसका विचार ही कर्ताक मनमें नहीं रहता । वह तो जो कुछ करता है, किसीके इशारेपर करता है । मानसिक त्यागके बाद भी जो

१. बली सिन्दरीवत् मात्र रहे देह जो ।