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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

अनुसार चलिये, अपने मनको इस शक्तिके वशमें रखिये और उदात्त भावसे आत्मत्याग करिये।' महाराष्ट्रके इस सन्तको सलाहका सार यही है।

[ अंग्रेजीसे ]
यंग इंडिया, २४-६-१९२६

"हिन्दी नवजीवन" के पाठकोंसे

मुझे इस बातका हमेशा दुःख रहा है कि मैं 'हिन्दी नवजीवन में न कुछ लिख पाता हूँ और न उसे देख हो सकता हूँ। श्री हरिभाऊ उपाध्यायके खादी कार्य में व्यस्त हो जाने के बाद 'हिन्दी नवजीवन' की भाषाके बारेमें मेरे पास बहुत शिकायतें आई हैं। कोई कहते हैं, 'भाषा बिगड़ गई है, व्याकरण-दोष बहुत होते हैं और उसमें दूसरी भाषाकी ध्वनि भी रहती है। कोई कहते हैं, 'अर्थका अनर्थ भी होता है।' ये सब बातें सम्भव हैं। अनुवादक अपना कार्य बड़े प्रेमसे और परिश्रमसे करते हैं फिर भी उनके गुजराती भाषा-भाषी होनेके कारण हिन्दीकी त्रुटियाँ रह जानेकी पूरी सम्भावना है। मैं किसी हिन्दी प्रेमी सज्जनकी खोजमें हूँ; उनके मिलनेपर त्रुटियोंके दूर होनेकी आशा रखता हूँ। परन्तु साथ-साथ यह कहना भी अनुचित नहीं होगा कि 'हिन्दी नवजीवन' आखिर अनुवादके रूपमें ही प्रकाशित होता है। अर्थ हानि कहीं भी न होने पाये, ऐसी कोशिश में अवश्य करूंगा। किन्तु सच तो यह है कि हिन्दीमें 'नवजीवन' निकालनेकी योग्यता मुझमें नहीं है; न मेरे पास निरीक्षण करनेका समय है और न मुझमें हिन्दीका आवश्यक ज्ञान है। केवल मित्रों के प्रेमके वश होकर और इस मोहके कारण कि मेरे विचारोंसे हिन्दी भाषा जाननेवाले भी अनजान न रहें, मैंने 'हिन्दी नवजीवन' का प्रकाशन स्वीकार किया है। पाठकोंकी सहायतासे ही यह कार्य चलता रह सकता है। वे दो प्रकारको मदद दे सकते हैं। एक तो त्रुटियोंको बताकर और दूसरे, जब त्रुटियाँ असह्य हो जायँ तब 'नवजीवन' खरीदना बन्द करके। 'नवजीवन' अर्थ-लाभकी दृष्टिसे नहीं निकलता। उसके प्रकाशनमें केवल पारमार्थिक दृष्टि ही सामने रखी गई है। यदि भाषाके अथवा दूसरे किसी दोषके कारण 'नवजीवन' सेवाक्षम न रह जाये तब उसको बन्द करना कर्त्तव्य हो जायेगा ।

इस अंकमें जो अनुवाद दिये गये हैं, उन सभीके अनुवादकोंकी मातृभाषा हिन्दी है। नवजीवन-प्रेमी इस अंकके दोषोंको बताकर मुझे कृतार्थ करें

हिन्दी नवजीवन, २४-६-१९२६