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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

असहयोगकी कल्पना इसीलिए की गई थी कि हमें अपनी स्थितिके मुकाबलेमें अपनी जरूरतें हदसे ज्यादा तेजीसे बढ़ती हुई मालूम पड़ी थी। इसीसे यह स्पष्ट है कि असहयोग व्यक्तियोंसे नहीं, वरन् उस मनोदशासे होना चाहिए जिसपर नागपाशकी तरह हमें अपनी जकड़में बाँध रखनेवाला तन्त्र कायम है और जिससे हमारा सर्वनाश होता चला जा रहा है। इस तन्त्रने उसमें फँसे हुए हम लोगोंके रहन- सहनका ढंग जितना बढ़ा-चढ़ा दिया है वह देशकी आम हालतको देखते हुए सर्वथा अनावश्यक है। हिन्दुस्तान दूसरे देशोंके शोषणपर जीनेवाला देश नहीं है। इसलिए हमारे यहाँ मध्यम वर्गके लोगोंके बढ़नेका अर्थ हुआ सबसे निचले वर्गके लोगोंका नष्ट हो जाना। फलस्वरूप छोटे-छोटे गाँव जीवनस्तरके इस दुःसह भारको सह ही नहीं पाये, और मिटते चले गये। सन् १९२० में यह बात साफ-साफ नजर आने लग गई थी। इसे रोकनेवाला आन्दोलन अभी आरम्भिक अवस्था है। हमें उसके विकासको किसी जल्दबाजीमें रोक नहीं देना चाहिए।

जरूरतोंकी अपनी इस कृत्रिम वृद्धिने हमें विशेष हानि इस कारण पहुँचाई कि जिस पाश्चात्य ढंगको अपनानेके कारण हमारी जरूरतें बढ़ी है, वह हमारे यहाँको पुराने जमानेसे चली आनेवाली सम्मिलित परिवारकी प्रथाके अनुकूल नहीं है। सम्मिलित परिवारकी प्रथा निर्जीव हो चली, इसलिए उसके दोष ज्यादा साफ-साफ नजर आने लगे और उसके सहज गुणोंका लोप हो गया। इस तरह एक बुराईके साथ दूसरी बुराई भी आकर मिल गई।

ऐसी दशामें हमारा आत्मत्याग ऐसा होना चाहिए जैसा कि देशके लिये अपेक्षित है। ऊपरी सुधारोंके बजाय भीतरी सुधार ज्यादा जरूरी हैं। भीतरी अवस्था यदि बुरी हो और ऊपरसे निर्दोष रचना थोपी गई हो तो वह फरेब ही होगा। इसलिए हमें आत्मशुद्धिकी क्रिया पूरी-पूरी करनी होगी। आत्मत्यागकी भावना बढ़ानी पड़ेगी। आत्मत्याग बहुत किया जा चुका है सही, मगर देशकी दशाको देखते हुए वह कुछ भी नहीं है। परिवारके समर्थ स्त्री या पुरुष अगर काम न करना चाहें तो हमें उनका पालनपोषण करनेकी हिम्मत नहीं करनी चाहिए। निरर्थक, अंधविश्वासपूर्ण रीतिरिवाजों, जातिभोजों या विवाह आदिके बड़े-बड़े खर्चोंके वास्ते एक पैसा भी हम नहीं निकाल सकते। कोई विवाह या मौत हुई कि बेचारे परिवारके संचालकके ऊपर एक अनावश्यक और भयंकर बोझ आ पड़ता है। ऐसे कार्योंको आत्मत्याग मानने से इनकार करना चाहिए। बल्कि उन्हें तो अनिष्ट समझकर हमें हिम्मत और दृढ़तासे इनका विरोध करना चाहिए।

शिक्षा प्रणाली भी हमारे लिए बेहद महँगी है। करोड़ोंको जब पेटभर अनाज भी नहीं मिलता, जब लाखों आदमी भूखसे मरते जा रहे हैं, ऐसे वक्त हम अपने परिवारके बच्चोंको एक बेहद महँगी शिक्षा दिलानेका विचार कैसे कर सकते हैं? मानसिक विकास तो कठिन अनुभवसे ही होगा; उसका मदरसे या कालिजमें पढ़ने से होना जरूरी नहीं है। जब हममें से कुछ लोग खुद अपने और अपनी सन्तानके लिए ऊँचे दर्जेको मानी जानेवाली शिक्षा दिलाना त्याग देंगे, तभी सच्ची ऊँचे दर्जेकी शिक्षा