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४७. पत्र : मथुरादास त्रिकमजीको

आश्रम
साबरमती
मंगलवार, २२ जून, १९२६

चि० मथुरादास,

तुम्हारा पत्र मिला। तुमने बंगला लेकर ठीक ही किया। सर प्रभाशंकर पट्टणीने फिर लिखा है कि उनका बंगला रखे रहनेमें हमें किसी संकोचकी जरूरत नहीं है। लेकिन मुझे लगा कि हमें उनका बंगला लम्बे अर्सेतक नहीं रखना चाहिए। तुमने माथेरान जानेका विचार किया है, यह ठीक ही है। किन्तु यदि पंचगनीमें पर्याप्त लाभ होता दिखे तो मेरे खयालसे वहाँसे जाना ठीक न होगा। पंचगनीमें रहनेका कारण तो उसकी ऊँचाई है। तात्पर्य यह है कि माथेरानमें ठंड तो मिल सकती है, लेकिन वहाँ रहनेमें यह दोष है कि वह उतनी ऊँचाईपर स्थित नहीं है। और फिर सितम्बरके बादकी बात अभी करनेसे क्या लाभ? बम्बईमें तो किसीकी मददकी जरूरत नहीं पड़ेगी न? पंचगनीमें महादेवकी जरूरत जान पड़े तो लिखना। पंचगनी बड़ा शहर है। दुकानोंकी सुविधा तो देवलाली-जैसी ही है; इसलिए मैं नहीं समझता कि प्यारेलालको वहाँ कोई भी दिक्कत होगी।

गुजराती प्रति (एस० एन० १९६२८) की माइक्रोफिल्मसे।

४८. पत्र : दूदाभाईको

आश्रम
साबरमती
मंगलवार, २२ जून, १९२६

भाई दूदाभाई,

तुम्हारा पत्र मिला। तुम्हें अभीतक वेतन नहीं मिला, इस बारेमें भाई बलवन्त रायको पत्र लिख देना। तुम्हें जो भी दिक्कत हो उसके सम्बन्धमें उन्हें पत्र लिखते रहना। यह आवश्यक है। उन्होंने भी यही कहा है। तुमने स्कूल न छोड़नेका जो निश्चय किया है वह मुझे बहुत अच्छा लगा है। मैंने तुम्हारे वेतनके बारेमें भाई बलवन्तरायसे बात कर ली है। बहुत करके अब कोई दिक्कत न होगी । चि० लक्ष्मीके कपड़ोंके बारेमें फट जानेपर तुरन्त सूचना देना, और यदि उन्हें यहाँ सिलवाना हो तो माप भी भेजना।

गुजराती प्रति (एस० एन० १९६२९) की माइक्रोफिल्मसे।