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विविध

नापसन्द करता हुं तदपि सोसाइटीके कर्मचारिओंका सद्दाचारको, उन्का देशाभिमानको, उन्की त्यागवृत्तिको मैं भूल नहीं सकता हूं और इस कारण उन्की हस्तीको कायम रखना प्रत्येक स्वदेशाभिमानीका कर्त्तव्य समझता हुं। यदि आप भी यही अभिप्राय रखते हैं तो कुच्छ न कुच्छ भी सहाय भेज दें और दूसरे मित्रोंको भी बन पड़े तो देनेका कहें।

आपका,
मोहनदास

मूल पत्र (सी० डब्ल्यू० ६१२९) की फोटो-नकलसे।
सौजन्य : घनश्यामदास बिड़ला

३०. विविध

मरणोत्तर भोज

मृत्यु होनेपर जो भोज दिया जाता है उसे मैं असभ्यता मानता हूँ। इसपर एक सज्जनका कहना यह है :[१]

मैं कई बार लिख चुका हूँ कि संस्कृत में लिखी गई सारी ही कृतियाँ धर्मशास्त्र हैं, ऐसा नहीं मानना चाहिए। इसी तरह यह भी नहीं मानना चाहिए कि धर्मशास्त्र माने जानेवाले 'मनुस्मृति' आदि प्रमाण ग्रन्थोंमें जो कुछ आज हम पढ़ते हैं वह सब मूलकर्ताकी कृति है, और यदि यह उसकी कृति हो तो वह आज भी अक्षरशः प्रमाण-रूप है; मैं स्वयं तो ऐसा कतई नहीं मानता। कुछ सिद्धान्त अवश्य सनातनी सिद्धान्त हैं और उन निश्चित सिद्धान्तोंको माननेवाला सनातनी है। मगर उन सिद्धान्तोंको आधार मानकर जो आचार विभिन्न युगोंके लिए बनाये गये थे वे सव अन्य युगोंमें भी उपयुक्त ही होने चाहिए, ऐसा माननेका कोई कारण नहीं है। स्थान, काल और संयोगोंके कारण आचार बदला करता है। पहले जमानेमें मरणके बाद दिये जानेवाले भोजमें चाहे कुछ अर्थ भले ही हो, लेकिन इस जमानेमें उसकी सार्थकता समझमें नहीं आ पाती। जिस विषय में बुद्धिका प्रयोग किया जा सकता है वहाँ श्रद्धाकी गुंजाइश नहीं होती। जो बातें बुद्धिसे परे हैं उन्होंमें श्रद्धाका उपयोग है। इस मामले में तो हम बुद्धिसे समझ सकते हैं कि मरणके पीछे भोज देनेमें धर्मकी कोई बात नहीं है। हम देखते हैं कि दूसरे धर्मोमें इस प्रथाका प्रचलन नहीं है। मरणोपरान्त भोजको रूढ़ रहने देनेके लिए संस्कृत श्लोकोंके अतिरिक्त हमारे पास हिन्दूधर्मके और भी दूसरे सबल प्रमाण होने चाहिए। हिन्दू धर्मशास्त्रके अथवा कह सकते हैं कि

  1. १. पत्र यहां नहीं दिया गया है। पत्र लेखकने इसमें गांधीजीसे पूछा था, “आप तो अपने आपको सनातनी हिन्दू कहते हैं। तब आप मृत्युके पश्चात् जातिभोजकी निन्दा क्यों करते है? इसका विधान तो शास्त्रोंने भी किया है।"