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राष्ट्रीय शिक्षा

है। संसारमें स्वावलम्बनसे बढ़कर और कोई अवलम्ब नहीं है। उन्हें चाहिए कि वे अपनी माँगें वाजिब रखें और उनपर मजबूतीसे अड़े रहें। वे जो कुछ कहें एक होकर कहें। जो-कुछ करें एक होकर करें। वे सत्यसे तिल-भर भी न हटें। वे समझौते में आये हुए अपने हिस्सेकी बातें जरूर पूरी करें यानी सफाई और भवन निर्माण सम्बन्धी सभी नियमोंका पालन करें और अपने उद्देश्यके हेतु सामुदायिक रूपसे एक समाज बने रहकर कष्ट झेलनेके लिए तैयार रहें। बिना मुसीबत झेले मुक्ति नहीं मिलती।

[अंग्रेजीसे]
यंग इंडिया, ३०-९-१९२६

४९५. राष्ट्रीय शिक्षा

जो लोग राष्ट्रीय शिक्षामें दिलचस्पी रखते हैं, मैं उनका ध्यान आचार्य आ॰ टे॰ गिडवानीके उस दीक्षांत भाषणकी ओर आकर्षित करता हूँ जो उन्होंने काशी विद्यापीठके छात्रोंके सामने दिया है और जिसके मुख्य अंश मैं अन्यत्र[१] प्रकाशित कर रहा हूँ। वे राष्ट्रीय शिक्षा या राष्ट्रीय शैक्षणिक संस्थाओंसे हताश कदापि नहीं हैं और छात्रोंकी निराशाको दूर करनेके लिए उन्होंने सलाह दी है कि इन संस्थाओंके अध्यापक उन्हींके समान उन विभिन्न राष्ट्रीय शिक्षण संस्थाओं तथा केन्द्रोंकी तीर्थयात्रा-करें जिनमें राष्ट्रीय स्नातक कार्य कर रहे हैं। आचार्य गिडवानीकी तरह मैं भी आशावादी हूँ। किन्तु राष्ट्रीय संस्थाओंकी भारी दुर्बलताओंकी ओरसे मेरी आँखें बन्द नहीं हैं। इसी प्रकार जहाँतक मैं जानता हूँ आचार्यजीने भी उनकी ओरसे आँखें बन्द नहीं की हैं। नई संस्थाओंमें जैसा जीवट दिखाई देना चाहिए वैसा उनमें दिखाई नहीं देता। इन संस्थाओंके अध्यापकोंको राष्ट्रीय शिक्षामें तथा उन संस्थाओंमें जिन्हें वे चला रहे हैं, अधिक विश्वास व्यक्त करना है। उन्होंने अबतक जितना त्याग किया है उन्हें उससे भी अधिक त्याग करना है। मुझे विश्वास है कि जहाँतक संस्थाओं के कमजोर होनेका सवाल है, उसका कारण अध्यापकोंमें विश्वास तथा आत्मत्यागका अभाव ही है। उन्हें मौलिक कार्य करनेका साहस दिखाना चाहिए। एक सम्मेलन बुलाकर समान प्रणाली और समान नीति निर्धारित करनेका प्रयत्न किया जा सकता है। किन्तु शायद यह ज्यादा अच्छा होगा कि प्रत्येक संस्था अपने खुदके मौलिक खाकेको आधार बनाये। हमारा देश इतना बड़ा और विविधतासे भरा है कि उसमें बहुत प्रकारके प्रयोग करना वांछित है। कुछ बातें ऐसी जरूर हैं जो सभी राष्ट्रीय संस्थाओं में स्पष्ट रूपसे एक समान हैं। उनको यहाँ दुहरानेकी जरूरत नहीं है। अध्यापकोंका विभिन्न संस्थाओंकी तीर्थयात्रा करनेका विचार निःसन्देह उपयुक्त है, लेकिन पहले इस विचारको कार्यरूपमें परिणत करनेके लिए भी कुछ हदतक प्रेरणाप्रद विश्वासकी आवश्यकता है।

  1. देखिए यंग इंडिया, ३०-९-१९२६।