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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

है। उसके पास बहुत काम है। हकीकत तो यह है कि शिष्टमण्डलको किसी प्रकारकी सलाह-सूचनाकी जरूरत नहीं है। इसके सदस्य बाजाब्ता गवाहियाँ लेनेके लिए नहीं आये हैं। वे तो बिना पूछताछ किये भारतमें तत्सम्बन्धी वातावरण समझने के लिए आये हैं। यदि शिष्टमण्डलके सदस्य खुले दिलसे आये हों, तो वही काफी है। इसके विपरीत माननेका हमारे पास कोई कारण नहीं है। हमें उनके काममें दखल न देना चाहिए; उनकी अन्तरात्मा दखल दे तो दे। अन्तरात्मा तो तभी ठीक काम करती है जब उसे कोई दूसरा सुझाता-बताता नहीं है। आज उनकी अन्तरात्मा कसौटीपर चढ़ी है।

श्री एन्ड्रयूजकी दक्षिण आफ्रिकामें आवश्यकता है और वह भी तत्काल क्योंकि प्रवासियोंको सहायककी फौरी जरूरत है। रायटरके तारसे मालूम हुआ है कि आफ्रिकी हिन्दुस्तानी उनकी बीमारीका हाल सुनकर बहुत घबड़ा गये थे। वे उनका एकमात्र सहारा नहीं तो मुख्य सहारा अवश्य हैं। उनके लिए अपना मामला तैयार करना जरूरी है। जितना समय शेष है उन्हें उतने में तैयारी कर लेनी चाहिए। और उनको इसीके लिए श्री एन्ड्रयूजकी जरूरत है।

उनको गोलमेज सम्मेलनके लिए उपयुक्त वायुमण्डल जरूर तैयार करना चाहिए। वे ही गोरे लोगों और हिन्दुस्तानियोंके बीच एकमात्र जीवन्त श्रृंखला हैं। अगर दक्षिण आफ्रिकाका गोरा लोकमत भारतवासियोंके बिलकुल प्रतिकूल है, तो सम्मेलनसे कोई लाभ नहीं हो सकता। दक्षिण आफ्रिकाका लोकमत हमारे देशके लोकमतके समान नहीं है; क्योंकि उसके पीछे शक्ति है, उसके पास वोटोंकी ताकत है। वहाँके लोकमतमें अपने मनकी कार्यनीति निर्धारित करानेकी शक्ति है। वह इंग्लैंडकी सरकारकी आज्ञा मानने से इनकार कर सकता है। श्री एन्ड्रयूज कुछ हदतक उस लोकमतको पैदा कर सकते हैं तथा उसे कुछ हदतक अनुकूल बना सकते हैं। उनकी उपस्थितिसे ही नुक्ताचीनीकी तलवारें म्यानमें जा सकती हैं और विरोध शान्त हो सकता है। इस समय उनको निस्सन्देह दक्षिण आफ्रिकामें ही होना चाहिए।

गोलमेज सम्मेलनकी कार्यवाही आफ्रिकामें बसे हुए हिन्दुस्तानी लोगोंके भविष्यपर असर डालनेमें ही समर्थ नहीं होगी, बल्कि दूसरे उपनिवेशोंके बारेमें भी एशियाइयोंसे सम्बन्धित नीतिपर अदृश्य रूपसे असर डालेगी। लेकिन प्रवासी हिन्दुस्तानी धोखेमें न रहें। श्री एन्ड्रयूजका इस प्रकार प्रभावशाली ढंगसे बीचमें पड़ना उनके संघर्षके लिए अनिवार्य तो है, फिर भी उसकी अन्तिम सफलता तो स्वयं उनके ही ऊपर निर्भर


कहा है, वहां रंगभेदकी जड़े मजबूत हैं और बाजारोंमें, रेलोंमें और सामाजिक कार्योंमें भारतीयोंसे होन तथा शोषित जाति जैसा व्यवहार किया जाता है। जबतक यह हालत कायम है, तबतक वहाँ जानेसे क्या फायदा है? मैं इन सब बातोंको पूरी तरह जानता हूँ और मुझे इनका बहुत ही कडुव और निकटका अनुभव है। फिर भी जब एक एशियाई विधेयक जो वापस नहीं लिया गया है, केवल स्थगित ही किया गया है, उनके सिरपर लटक रहा है, तब मुझे अपने सफल होनेका विश्वास होता है और आशा बँधती है, क्योंकि जैसे ईश्वर यहाँ हम भारतीयोंके हृदयोंमें है, वह वैसे हो वहीं दक्षिण आफ्रिकाके लोगोंके हृदयों में भी बसा है और वहाँके डचों और अंग्रेजोंके हृदयोंमें तीव्र गतिसे प्रेम उत्पन्न कर रहा है। वह मुझे वहाँ साथीके रुपमें अवश्य ही मिलेगा।