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४८१. पत्र: जेड॰ एम॰ पैरेटको

आश्रम
साबरमती
२३ सितम्बर, १९२६

प्रिय मित्र,

आपका पत्र मिला। मैंने आपके लिए एक पत्र लिखा तो था, लेकिन फिर यह सोचकर फाड़ डाला कि बेजा लिखना आपके साथ न्याय नहीं होगा। मतलब यह कि में आपके साथ तर्क करने और आपको समझाने-बुझानेके बजाय कठिनाईसे बचनेके लिए आपकी इच्छाके आगे आत्मसमर्पण करने जा रहा था। मैं आपको बताना चाहता हूँ कि शराबबन्दीके कार्यके लिए को एक मुखपत्र चलानेकी कोई जरूरत नहीं। अगर आपके पास ईमानदार कार्यकर्ता हैं तो पत्र निकालनेका मतलब, तुलनात्मक दृष्टिसे देखनेपर उनके और आपके समयकी बरबादी होगी। मैंने यहाँ और दक्षिण आफ्रिका दोनों जगह शराबियोंके बीच काम किया है। क्या आप जानते हैं कि आप लेखों आदिके द्वारा उनतक कभी नहीं पहुँच सकते? वे एक तो पढ़ने-लिखने से बहुत दूर ही रहते हैं और अगर कुछ पढ़ते भी हैं तो उससे बिलकुल प्रभावित नहीं होते। अगर उनपर किसी बातका असर होता है तो वह यही है कि आप स्वयं उनके पास जाकर उन्हें शराब छोड़नेकी बात समझाय। तब शायद वे आपकी बात मान लें। अभी कुछ दिनोंसे में अखबार निकालनेके इच्छुक हरएक मित्रको, ऐसा न करनेकी सलाह देता आ रहा हूँ। मैंने उनके लिए लिखनेकी बातको भी माननेसे इनकार कर दिया है। और यदि मैं आपको अखबार निकालनेके इस उपक्रमसे विरत नहीं कर पाया तो आपके साथ भी मैं यही बरताव रखना चाहता हूँ। हो सकता है, आप अपने इस कामके लिए इतने प्रतिबद्ध हो चुके हों कि अब आपके लिए कदम पीछे हटाना असम्भव हो गया हो, या हो सकता है कि शराबबन्दीका काम आगे बढ़ानेके बारेमें आपके विचार मेरे विचारोंसे सर्वथा भिन्न हों। ऐसी स्थितिमें आपके अपने विचारों और उनपर आपके अमलके विरुद्ध मैं कुछ नहीं कह सकता। ऐसी हालतमें मैं तो केवल यही चाहूँगा कि मुझे मेरे ढंगसे काम करने दिया जाये और यदि हो सके तो मेरी इस भावनाकी कद्र भी की जाये।[१]

हृदयसे आपका,

डा॰ जेड॰ एम॰ पैरेट


सम्पादक
'पौर प्रभा'


कोट्टायम (दक्षिण भारत)

अंग्रेजी प्रति (एस॰ एन॰ १९७०६) की माइक्रोफिल्मसे।

  1. देखिए "पत्र: जेड॰ एम॰ पैरेटको", ७-१०-१९२६।