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कुछ उलझे हुए प्रश्न

चिन्ता क्यों होनी चाहिए? हम यह जानते हैं कि उसका जितना भी दाम हम देंगे उसकी कौड़ी-कौड़ी भूखों मरनेवाले गरीबोंको ही मिलेगी। मेरा अनुभव तो यह है कि जहाँ लोगोंने खादीको स्वीकार किया है वहाँ बहुसंख्यक लोगोंकी कपड़ेके विषयमें रुचि ही बदल गई है। मैनचेस्टरके कपड़ोंकी बनिस्बत खादी दूनी महँगी भले ही हो, परन्तु अनावश्यक और अधिक कपड़ेके त्यागके द्वारा महँगेपनकी यह क्षतिपूर्ति हो जाती है। जो लोग बारीक खादी पहनना चाहें, वे अब उसे सभी मुख्य केन्द्रोंमें पा सकते हैं।

ये डाक्टर मित्र कताईकी आवश्यकता के विषयमें प्रश्न करते हैं और बड़ी गम्भीरतासे दलील पेश करते हैं कि यदि सभी कातने लगेंगे तो उन गरीब लोगोंको हानि होगी जो कताईको ही अपनी आजीविकाका आधार बनाये हुए हैं। परन्तु वे यह भूल जाते हैं कि जिनसे त्यागके तौरपर कातनेके लिए कहा जाता है वे खद्दरके लिए अनुकूल वायुमण्डल तैयार करते हैं और उससे कताईको और भी अधिक सरल बनानेकी सम्भावना पैदा होती है। वे अपनी छोटी-छोटी खोजों और ईजादोंके द्वारा उसके उत्पादनको अधिक लाभप्रद भी बनाते हैं। त्याग-कर्मके तौरपर की गई कताईसे पेशेवर सूत कातनेवालोंकी मजदूरीको कोई हानि नहीं पहुँच सकती।

ये मित्र फिर यह पूछते हैं :

क्या डाक्टरोंको विदेशी दवाएँ देना छोड़ देना चाहिए और उसके बदले आयुर्वेदिक और यूनानी दवाओंका उपयोग सीख लेना चाहिए?

स्वदेशीके नामपर किसी भी परिस्थितिमें हर प्रकारकी विदेशी चीजका त्याग कर देना आवश्यक है, ऐसा मैंने कभी खयालतक नहीं किया है। स्वदेशीकी मोटी व्याख्या यह है: स्वदेशीके मानी घरके बने कपड़ोंका इस्तेमाल करना और अपने गृहउद्योगको रक्षाके लिए जिन विदेशी चीजोंके बहिष्कारकी आवश्यकता हो उनका बहिष्कार करना; और उनमें भी खासकर उन उद्योगोंकी रक्षाके लिए जिनके बिना भारत दरिद्रताका ग्रास बन जायेगा। इसलिए मेरी रायमें तो जिस स्वदेशीमें सभी विदेशी चीजोंका— चाहे वे कितनी ही लाभप्रद क्यों न हो और उनसे किसीको कोई हानि भी न होती होती हो— विदेशी होनेके कारण ही बहिष्कार करना आवश्यक हो तो स्वदेशीकी वह व्याख्या बड़ी ही संकीर्ण है। यदि दवा लेना ही आपत्तिकी बात न हो तो जहाँ विदेशी दवाएँ अधिक कारगर हों और उनके विषयमें कोई दूसरी आपत्ति भी न हो, वहाँ मैं बिना किसी हिचकिचाहटके विदेशी दवाओंका उपयोग करूंगा। परन्तु इसमें सन्देह नहीं कि पश्चिमकी डिग्री प्राप्त ऐसे भी बहुतसे डाक्टर हैं जो आयुर्वेदिक और यूनानी दवाइयोंकी बुराई करना फैशन समझते हैं। मुझे इसमें कोई सन्देह नहीं कि आयुर्वेदिक और यूनानी दवाइयोंमें भी ऐसी दवाइयाँ हैं जो बड़ी गुणकारी होते हुए भी सस्ती होती हैं। इसलिए जिन्हें पाश्चात्य आरोग्य-शास्त्रकी शिक्षा मिली है वे यदि आयुर्वेदिक और यूनानी पद्धतियोंकी उपयोगिताके बारेमें शोध करनेकी कोशिश करें तो वह एक बड़ी शुभ और वांछनीय बात होगी।

इस मित्रका जो अन्तिम प्रश्न है उसका तो इन पृष्ठोंमें कई बार उत्तर दिया जा चुका है। "क्या आप सब प्रकारके यन्त्रों के विरुद्ध हैं?" मेरा स्पष्ट उत्तर है: