४५८. एक पत्र[१]
आश्रम
साबरमती
१८ सितम्बर, १९२६
आपका पत्र मिला। आप बम्बईमें बिना किसी दिक्कतके कातना-धुनना सीख सकते हैं। इसके लिए आप श्रीमती अवन्तिका बाई, भाटवाडी, गिरगाँव, अथवा श्री विट्ठलदास जेराजाणी, खादी भण्डार, प्रिंसेस स्ट्रीट बम्बई, अथवा श्री कोटक, खादी भण्डार, कालबादेवी, बम्बईको अर्जी भेज सकते हैं। और इस कलाको सीखनेके बाद आप बारडोली, अहमदाबाद आदिके खादी केन्द्रोंमें से किसी एकमें जा कर बुनाई सीख सकते हैं। लेकिन यदि आप कातने और धुननेकी कलामें विशेष योग्यता प्राप्त करलें तो आपके लिए बुनाई सीखना अनावश्यक होगा, क्योंकि बुनकरोंकी जाति अभी नष्ट नहीं हुई है और आप जितना सूत कातेंगे वह सब आसानीसे बनवाया जा सकता है।
हृदयसे आपका,
अंग्रेजी प्रति (एस॰ एन॰ १९७०३) की माइक्रोफिल्मसे।
४५९. पत्र: नरहरि परीखको
शनिवार, १८ सितम्बर, १९२६
आपने अपने पत्रका जवाब नहीं माँगा है, परन्तु मैं तो लम्बा पत्र भेजना चाहता हूँ। आपने जो कदम उठाया है मेरी रायमें तो वह बिलकुल सही है। नानाभाईका दृष्टिकोण समझ में आता है। परन्तु मेरे लिए जिस प्रकार शिक्षाका अविभाज्य अंग गुजराती है उसी प्रकार खादी पहनना और सूत कातना भी है। इसमें मिशनरीपनकी कोई बात नहीं । तुम्हारे निर्णयके सम्बन्धमें मुझे धैर्य है; बहुत सी समस्याएँ अपने-आप सुलझ जाया करती हैं।
बापूके आशीर्वाद
लोकमान्य राष्ट्रीय विद्या मंदिर, सूरत
गुजराती पत्र (एस॰ एन॰ १९५५०) की माइक्रोफिल्मसे।
- ↑ यह पत्र किसे लिखा गया है यह ज्ञात नहीं है।