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४५०. पत्र : पी० ए० वाडियाको

आश्रम
साबरमती
१७ सितम्बर, १९२६

प्रिय मित्र,

दादाभाई जयन्तीके अवसरपर दिये गये आपके भाषणकी प्रतिके साथ आपका पत्र मिला। मैंने भाषण पढ़ा। यों तो भाषण अच्छा है, लेकिन मुझे इसमें कोई मौलिकता दिखाई नहीं दी। और फिर आपने उसमें दादाभाईके बारेमें एक ऐसी बात सामने रखी है जिसका वे जीवित होते तो शायद खण्डन ही करते। दादाभाईका सबसे अधिक जोर तो अपने अन्तरको जगानेपर ही था। बाहरवालोंको समझानेकी बातको वे इतना महत्त्व नहीं देते थे।

आपकी इच्छानुसार मैं आपका भाषण वापस भेज रहा हूँ।

हृदयसे आपका,

श्री पी० ए० वाडिया

होरमज्द विला

मलाबार हिल, बम्बई

अंग्रेजी प्रति (एस० एन० १९६९६) की फोटो-नकलसे ।

४५१. पत्र : सेवकराम करमचन्दको

आश्रम
साबरमती
१७ सितम्बर, १९२६

प्रिय मित्र,

आपका पत्र मिला। मेरे उत्तर इस प्रकार हैं:

१. मैंने तो जॉर्ज मुलरका उदाहरण, जैसा मैंने सुना, वैसा ही पेश किया था। मैं विश्वास करता हूँ कि हृदयसे की गई प्रार्थनाका भगवान द्वारा सुना जाना सम्भव है— जिस तरह, कहते हैं, जॉर्ज मुलरकी प्रार्थना उसने सुनी। इसका मतलब यह नहीं कि जॉर्ज मुलर अपने प्रतिदिनका आहार पानेके लिए काम नहीं करते थे। उन्होंने प्रार्थना तो एक लोकोपकारी संस्थाके लिए की, जिसे वे चलाते थे। दूसरी दृष्टियोंसे उनका जीवन बड़ा कठिन था। लेकिन उनके बारेमें कहा जाता है कि उन्होंने भगवानके अलावा और किसीके आगे हाथ नहीं पसारा।

२.मैंने चमत्कारोंपर चमत्कारोंके रूपमें विचार नहीं किया है। न उनमें मेरा विश्वास है, न अविश्वास। मैं मानता हूँ कि उनका हमारे आचरणपर अनुकूल अथवा प्रतिकूल कोई प्रभाव नहीं पड़ना चाहिए।