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मनोवृत्तियोंका प्रभाव

लेखमें[१] लिख चुका हूँ, अगर हम संयमसे रहना चाहते हों तो हमें जीवनक्रम बदलनेकी आवश्यकता है। लड्डू हाथमें भी रहे और पेटमें भी चला जाये यह कैसे हो सकता है? अगर हम उपस्थका संयम साधना चाहते हैं तो हमें अन्य इन्द्रियोंको भी संयमित करना होगा। अगर हाथ, पैर, नाक, कान, आँख और जिह्वाकी लगाम ढीली कर दी जाये तो उपस्थका संयम असम्भव है। अशान्ति, उन्माद और पागलपन भी, जिसका कारण लोग संयमको बताते हैं, देखा जाये तो अन्ततः अन्य इन्द्रियोंके असंयमसे पैदा हुए ही सिद्ध होंगे। कोई भी पाप और प्राकृतिक नियमोंका कोई भी उल्लंघन बिना दण्ड पाये बच नहीं सकता।

मैं शब्दोंपर झगड़ना नहीं चाहता। अगर आत्मसंयम प्रकृतिका ठीक उसी तरह उल्लंघन हो, जिस तरह गर्भाधानको रोकनेके कृत्रिम उपाय, तो ऐसा कहना ठीक हो सकता है। किन्तु मेरा खयाल तो तब भी यही बना रहेगा कि इनमें एक उल्लंघन कर्त्तव्य है और इष्ट है, क्योंकि उससे व्यक्तिकी तथा समाजकी उन्नति होती है और दूसरा उल्लंघन अनुचित है क्योंकि उससे उन दोनोंका पतन होता है। ब्रह्मचर्य अति सन्तानोत्पत्तिको नियमित करनेके लिए एकमात्र और अचूक उपाय है। और सन्ततिकी वृद्धि रोकनेके लिए कृत्रिम साधनोंके उपयोगका परिणाम जाति-हत्या है।

अन्तमें, यदि खानोंके मालिक गलत रास्तेपर होते हुए भी विजयी हुए तो इसका कारण मजदूरोंमें सन्तति-जननकी गतिका बहुत बढ़ना न होकर यह होगा कि मजदूरोंने अबतक इन्द्रिय संयमका पाठ नहीं सीखा है। इन लोगोंके बच्चे पैदा न होते तो उनमें अपनी अवस्था सुधारनेका उत्साह ही न होता और तब उनके पास मजदूरीमें वृद्धिकी माँग करनेका भी कोई कहने योग्य कारण न होता। क्या उनके लिए शराब पीना, जुआ खेलना या तम्बाकू खाना-पीना जरूरी है? क्या इसका यह कोई माकूल जवाब होगा कि खानोंके मालिक इन्हीं दोषोंमें लिप्त रहते हुए भी उनके ऊपर हावी हैं? अगर खानोंके मजदूर पूंजीपतियोंसे अच्छा होनेका दावा नहीं करते तो उनको संसारकी सहानुभूति माँगनेका क्या अधिकार है? क्या वे यह सहानुभूति इसलिए चाहते हैं कि पूंजीपतियोंकी संख्या बढ़े और पूंजीवाद मजबूत हो? हमसे कहा जाता है कि हम प्रजातन्त्रके गीत गायें, क्योंकि संसारमें उसका बोलबाला हो जानेपर हमें अच्छे दिन देखनेको मिलेंगे। इसलिए लाजिम है कि हम स्वयं बड़े पैमानेपर उन्हीं बुराइयोंको न करें, जिनका दोषारोपण हम पूँजीपतियों तथा पूंजीवाद- पर करते हैं।

मुझे यह मालूम है और इसका मुझे दुःख है कि आत्मसंयम आसानीसे नहीं साधा जा सकता। लेकिन उसकी धीमी गतिसे हमें उद्विग्न नहीं होना चाहिए। जल्दबाजीसे कुछ हासिल नहीं होता। अधैर्यसे जनसाधारणमें या मजदूरोंमें अत्यधिक सन्तानोत्पत्तिकी बुराईका अन्त न होगा। मजदूरोंके, सेवकोंके सामने बड़ा भारी काम पड़ा है। संयमका वह पाठ उनको अपने जीवन-क्रमसे निकाल नहीं देना चाहिए जो मानवजातिके अच्छेसे-अच्छे धर्मप्रचारकोंने अपने अमूल्य अनुभवसे हमें पढ़ाया है। जिन

  1. देखिए "जीवनदायी शक्तिका संचय", २-९-१९२६ ।