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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

तृप्तिको आध्यात्मिक रूप नहीं दिया जाता तो मनुष्यकी वासना-तृप्तिको आध्यात्मिक रूप क्यों दिया जाना चाहिए। हम जो चीज जैसी है उसे वैसी ही क्यों न देखें? हम इसे स्वजातिको कायम रखनेकी बलात् आकृष्ट करनेवाली एक क्रिया क्यों न मानें। इसमें मनुष्य अपवाद स्वरूप है; क्योंकि वही एक ऐसा प्राणी है जिसे ईश्वरने मर्यादित स्वतन्त्र इच्छा दी है। और वह इस कारण स्वजातिकी उन्नतिकी दृष्टिसे पशुओंकी अपेक्षा उच्चतर उस आदर्शकी पूर्तिके लिए, जिसके लिए वह संसारमें आया है, भोगोंसे बचनेकी क्षमता रखता है। हम संस्कारवश ही मानते हैं कि सन्तानोत्पत्तिकी आवश्यकताके अतिरिक्त भी स्त्री-संग अनिवार्य और प्रेमकी वृद्धिके लिए इष्ट है। यह बहुतोंका अनुभव है कि केवल भोगके कारण किया हुआ स्त्री-संग न तो प्रेमको बढ़ाता है और न वह प्रेमको स्थायी बनाने या शुद्ध करनेके लिए आवश्यक होता है। बल्कि ऐसे उदाहरण दिये जा सकते हैं जिनमें इन्द्रिय-निग्रहसे प्रेम और भी दृढ़ हुआ है। इसमें कोई शक नहीं कि यह इन्द्रिय-निग्रह पति और पत्नीके बीच एक दूसरे की आत्मिक उन्नतिके लिए स्वेच्छासे किया गया कार्य होना चाहिए।

मानव-समाज तो एक लगातार बढ़नेवाली चीज है; उसका क्रमश: आध्यात्मिक विकास होता रहता है। इस हालतमें उसके ऊर्ध्वं गमनका आधार शारीरिक अभितृप्तिको दिन-प्रतिदिन अधिक वशमें रखते चले जानेपर ही निर्भर होगा। इसप्रकार विवाहको तो एक ऐसी धर्मग्रन्थि समझना चाहिए जो पति और पत्नी दोनोंको संयत करे और उनपर यह कैद लगा दे कि उनका शरीर-सम्बन्ध सदा अपने ही बीच-तक सीमित होगा; सो भी केवल सन्तानोत्पत्तिके लिए और वह भी उसी हालत में जब वे दोनों उसके लिए तैयार और इच्छुक हों। तब उक्त पत्रमें बताई गई दोनों हालतोंमें सन्तति-जननकी इच्छाको छोड़कर वासनाकी तृप्तिका और कोई प्रश्न उठता ही नहीं।

यदि हम उक्त लेखककी तरह सन्तानोत्पत्तिके अलावा भी स्त्री-संगको आवश्यक मानकर तर्क प्रारम्भ करें तब तो फिर उसके विरोधमें तर्कके लिए कोई गुंजाइश नहीं बचती। परन्तु संसारके हरएक हिस्सेमें सदा ही उत्तम पुरुषों द्वारा सम्पूर्ण संयम किये जानेके दृष्टान्त मिलते हैं और इसलिए उक्त मान्यताका खण्डन हो जाता है। यह कहना कि ऐसा संयम अधिकांश मानव-समाजके लिए कठिन है, संयमकी शक्यता और इष्टताके विरुद्ध कोई दलील नहीं मानी जा सकती। सौ वर्ष पहले जो बात मनुष्यके लिए शक्य न थी वह आज शक्य दिखाई देती है। और हमारे सामने असीम उन्नति करनेके निमित्त जो कालका चक्र पड़ा है, उसमें सौ वर्षकी गणना ही क्या है? अगर वैज्ञानिकोंका अनुमान सत्य है तो कहना चाहिए कि हमें आदमीका चोला तो अभी-अभी मिला है। इसकी मर्यादाएँ कौन जानता है? और कौन इसकी मर्यादाओं को निश्चित कर सकता है? निःसन्देह हमें रोज भला या बुरा करनेकी उसकी निस्सीम शक्तिके दर्शन होते रहते हैं।

अगर संयमकी शक्यता और इष्टता मान ली जाये तो हमें उसका पालन करनेके साधनोंको ढूंढ़नेकी कोशिश करनी चाहिए। और, जैसा मैं अपने एक पिछले