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मनोवृत्तियोंका प्रभाव

वैद्यको हैसियतसे मेरे पास कोई इलाज नहीं है। मेरे पास इने-गिने नुस्खे हैं। मैं तो मानता हूँ कि सभी बीमारियोंकी जड़ एक ही है और इसलिए उनका इलाज भी एक ही हो सकता है। मगर क्या वैद्यको उसकी मर्यादाओंके लिए दोष दिया जा सकता है; सो भी तब जबकि वह अपनी मर्यादा पुकार-पुकारकर बता रहा हो?

जिन विद्यार्थियोंके विषयमें ये सज्जन लिखते हैं, उनमें तो अपने जीवनका रास्ता खोज निकालने लायक शक्ति होनी ही चाहिए। स्वावलम्बन ही स्वराज्य है।

[अंग्रेजीसे]
यंग इंडिया, १६-९-१९२५

४४२. मनोवृत्तियोंका प्रभाव

'यंग इंडिया' में सन्ताननिग्रहपर आपने जो लेख लिखे हैं, उनको मैं बड़ी दिलचस्पीसे पढ़ता रहा हूँ। मुझे उम्मीद है कि आपने जे० ए० हैडफील्डकी 'साइकॉलोजी ऐंड मॉरल्स' नामक पुस्तक पढ़ी होगी। मैं आपका ध्यान उस पुस्तकके निम्न उद्धरणकी ओर दिलाना चाहता हूँ:[१]

"विषय-भोगकी प्रवृत्ति स्वेच्छाचार उसी हालतमें कहलाती है जब यह नीतिकी विरोधी हो और निर्दोष आनन्द तब मानी जाती है जब यह प्रेमके रूप में प्रकट हो।"

एक पत्र-लेखक द्वारा लिखे इस पत्रमें मनोवृत्तियों तथा उनके प्रभावके अध्ययनके लिए मुझे खासी सामग्री मिली है। जब मनुष्यका दिमाग रस्सीमें साँपकी कल्पना कर लेता है, तब वह उस कल्पनासे पीला पड़ जाता है। तब या तो वह भाग जाता है या उस कल्पित सांपको मारनेके लिए लाठी लाता है। दूसरा आदमी किसी बहनको पत्नी भावसे देखता है, वह अपने मनमें पशुवृत्तिको जगाता है। जिस क्षण वह अपनी भूल जान लेता है, उसका वह विकार उसी क्षण शान्त हो जाता है। पत्र-लेखक द्वारा उल्लिखित बात भी ऐसी ही है। इसमें सन्देह नहीं कि जब "विषयेच्छाको भ्रमवश नीचे दर्जेका सुख मानकर संयम रखनेका प्रयत्न किया जाता है तब उससे अशान्तिकी उत्पत्ति और प्रेममें कमी आ जानेकी" सम्भावना होती है। लेकिन अगर संयम प्रेमबन्धनको अधिक दृढ़ बनाने, प्रेमको शुद्ध बनाने तथा एक अधिक अच्छे कामके लिए वीर्यको संचित करनेके अभिप्रायसे किया जाये तो वह अशान्तिकी अपेक्षा शान्तिमें ही वृद्धि करेगा और प्रेमके बन्धनको ढीला न करके उलटा मजबूत बनायेगा जो प्रेम पशुवृत्तिकी तृप्तिपर आधारित है, वह आखिर स्वार्थपरता ही है और थोड़ा-सा खिंचाव पड़नेपर टूट जा सकता है। फिर प्रश्न है कि यदि पशुपक्षियोंकी वासना-

  1. अंशत: उद्धृत।