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४३४. पत्र : पुरुषोत्तम पटवर्धनको

आश्रम
साबरमती
मंगलवार, भाद्रपद सुदी ७, १४ सितम्बर, १९२६

भाईश्री ५ अप्पा,

आपका पत्र मिला। भाई अब्दुल्ला यहाँसे जानेके बाद आपके पास ही गया है। अबतक तो काफी घनिष्ठ परिचय हो गया होगा। आपने फिरसे कच्चा भोजन शुरू कर दिया है, इसके सम्बन्धमें मेरा विरोध हो ही नहीं सकता पर उसमें एक शर्त है। स्वास्थ्य बिगड़ना न चाहिए। कच्चे भोजनकी निर्दोषताका अनुभव तो मुझे भी खूब हो चुका है। परन्तु उसका प्रयोग शास्त्रीय ढंगसे और बड़े पैमानेपर होना चाहिए। बिना पकाया भोजन थोड़ी-थोड़ी मात्रामें करना चाहिए, इस सम्बन्धमें कोई शंका है ही नहीं। मुझ जैसे लोग, जिनका हाजमा कमजोर हो गया है, क्या करें? दूधका स्थान ले सकनेवाली कोई चीज मेरे ध्यानमें नहीं आती।

नकली खादी न बेची जाये इसके सम्बन्धमें चरखा संघ अपने भण्डारोंमें तो चौकसी रख सकता है। पर दूसरे भण्डारोंके बारेमें वह क्या कर सकता है?

अस्पृश्यता निवारण सम्बन्धी कर्त्तव्य तो मोटे तौरपर बताया जा चुका है। जैसा व्यवहार तीन वर्ण चौथे वर्णके साथ करते हैं वैसा ही चारों वर्ण अस्पृश्योंके साथ करें। इसके बाहर जाकर यदि कोई व्यक्ति कुछ करे— जैसे उनके साथ भोजन आदि करना— तो वह अपनी मर्जी और अपनी जोखिमपर करे। दूसरे भी उनके साथ खाना शुरू कर देंगे और हमारी तरह पापके भागी होंगे ऐसा मानकर हम उनके साथ खानेसे न रुकें। क्योंकि अगर कोई उनके साथ रोटीका सम्बन्ध रखता है तो वह कोई पाप नहीं करता, बल्कि हम तो इसे पुण्य-कार्य समझकर करते हैं। छुआछूत-को दोष न मानें तो वर्ण-व्यवस्थामें साथके खानपान इत्यादिपर जो प्रतिबन्ध है वह उसका अनिवार्य अंग नहीं माना जायेगा और माना भी न जाना चाहिए।

मैं समझता हूँ कि बम्बईमें यदि भंगियोंके ट्राममें बैठनेपर प्रतिबन्ध लगे तो यह सचमुच अन्याय है।

जाति व्यवस्थामें भी तिरस्कारका भाव है। यदि अस्पृश्यता दूर हो जाये तो हिन्दू धर्ममें से तिरस्कारकी दुर्गंध मिट जायेगी। ऊँच-नीचकी भावना अस्पृश्यता रूपी रोगका फल और चिह्न है। आज जो संस्कार हमारे जीवनमें जड़ जमा चुके हैं वे पुरानी वर्ण व्यवस्थामें कदापि नहीं थे। यह तो हम अपने इतिहाससे मालूम कर सकते हैं।