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४३२. पत्र : एम० मगरिजको

आश्रम
साबरमती
१२ सितम्बर, १९२६

प्रिय मित्र,

पत्रके लिए धन्यवाद। आपने जिस पुस्तकका उल्लेख किया है, वह मैंने नहीं पढ़ी है। मेरे और अन्य कई लोगोंके अनुभव आपके भेजे हुए उद्धरणोंसे मेल नहीं खाते। मेरा खयाल है कि लेखकके दृष्टिकोण और मेरे तथा मेरे मित्रोंके दृष्टिकोण में फर्क है। जब ब्रह्मचर्यका पालन इस मिथ्या धारणासे प्रेरित होकर किया जाता है। कि मूल प्रवृत्तिकी तुष्टिसे जो सुख मिलता है वह बड़ा ही घटिया दर्जेका होता है, तब वह "चिड़चिड़ेपन और प्रेमके ह्रासका कारण बन सकता है। लेकिन जब ब्रह्मचर्य-का पालन आत्म-साक्षात्कारके लिए, शक्ति अर्जित करनेके लिए और शारीरिक सुखके लिए नहीं बल्कि आत्माओंके मिलनको प्रेमका आधार मानकर किया जाता है तो यह मनको शान्ति और शीतलता प्रदान करता है और पति-पत्नीके सम्बन्धको पवित्र और इसीलिए सबल बनाता है। आपने जिन बुराइयोंका वर्णन किया है, उनमें से अधिकांश तो मेरे खयालसे प्रेम और सहवासके प्रति दोषपूर्ण दृष्टिकोणसे उत्पन्न होती हैं। मेरी योजनाके अनुसार पति-पत्नीको एक दूसरेसे अलग, अर्थात् अलग-अलग घरोंमें रहनेकी जरूरत नहीं है, लेकिन उन्हें निश्चय ही अपने आपको एक ही कमरेमें और उसे बन्द करके साथ नहीं रहना चाहिए। दीर्घकालसे देखते चले आनेके कारण ही बिना किसी नैतिक उद्देश्यके पति-पत्नीके एकान्तमें रातें गुजारते जानेके भोंडेपनको हम नहीं देख पाते। ऐसा करनेसे हम पशुओंसे भी कम हो जाते हैं। पति और पत्नीका केवल विनयके साथ सन्तानोत्पत्ति-भरके लिए एकान्त-सेवन ठीक है। मैं जानता हूँ कि उस क्रियामें पाशविक आनन्द तो तब भी रहेगा ही, लेकिन उसे मैं वैध पाशविक आनन्द कहूँगा। अगर हम सिर्फ अपने विचारोंमें सुधार कर लें और फिर आजकलके प्रतिकूल आचरणके बावजूद अपने-आपको उन विचारोंके अनुरूप ढालनेकी कोशिश करें, तो मुझे इसमें तनिक भी सन्देह नहीं कि आत्मसंयम न केवल आसान बल्कि दुनियाकी सबसे स्वाभाविक चीज भी बन जायेगा। खूबसूरतसे खूबसूरत कोई लड़की मेरी बहन हो सकती है और अगर अपनी बहनको चूमनेकी प्रथा प्रचलित हो तो उसके अनुसार में उसे निश्चय ही चूमूंगा भी। लेकिन उस समय मेरे मनमें कोई वासना तो नहीं जगेगी। फिर पत्नीके साथ इससे भिन्न बात क्यों होनी चाहिए? लेकिन होती है; यह मेरा खुदका अनुभव है। उसका कारण मानसिक वृत्ति है। हम अपनी पत्नियोंको अपनी वासनाकी पूर्तिके लिए चूमते हैं और बहनों और बेटियोंको वासनारहित प्रेमसे।