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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

धर्म है और वह सत्यके नामसे ज्ञात ईश्वरमें ही समाविष्ट हो जाता है। पराधीन और अत्यन्त परिमित शक्तिवाले मनुष्यका धर्म क्षण-क्षणमें बदला करता है; किन्तु उसकी भूमिका और आधार एक ही होता है— उसे हम चाहे सत्य कहें, चाहे अहिंसा कहें। इस भूमिकापर कायम रहते हुए परिवर्तन तो अनेक होते ही रहते हैं। ऐसा ही इन मिलोंके सम्बन्धमें समझना चाहिए। किन्तु जहाँ किसानोंके अपना खेत छोड़ संदूक जैसी छोटी-छोटी कोठरियोंमें नीति-अनीतिका विचार किये बिना कई कुटुम्ब रहें और मजदूर जहाँ बहुत-सी कुटेव सीखें, वहाँ खुशियां मनानेकी तो कोई बात ही नहीं है। धनिक लोगोंकी दृष्टिसे विचार करनेपर भी मिलोंमें हमें कोई ऐसी बात देखनेको नहीं मिलती जो हमें ऊँचा उठाये। धन इकट्ठा करने या उसे कुछ हिस्सेदारोंमें बाँट देने भरमें किसी प्रकारका आदर्श नजर नहीं आता, किन्तु जैसे एकांतिक दृष्टिसे विचार करनेपर काया बुरी वस्तु मालूम होती है, किन्तु अनिवार्य समझकर उसका उपयोग करना ही पड़ता है उसी प्रकार मिलों इत्यादिको भी आज अनिवार्य समझकर हम बरदाश्त करें। और अगर हो सके तो उनका उपयोग बहिष्कारके लिए करें। यदि उनका ऐसा कोई उपयोग न हो सके और वे बहिष्कारके पथमें बाधा रूप बनें तो उनका नाश ही इष्ट और आवश्यक होगा।

[गुजरातीसे]
नवजीवन, १२-९-१९२६

४३०. पत्र : विलयम डुलको

आश्रम
साबरमती
१२ सितम्बर, १९२६

प्रिय श्री डुल,

चूंकि श्री उमर जौहरीसे मिलनेकी उम्मीद थी, इसलिए मैंने आपके ५ जूनके पत्रकी[१] पहुँच अबतक नहीं दी थी। अब में उनसे मिल चुका हूँ। मैंने कुछ ही दिनों पहले ६,५०० रुपये दे दिये हैं और तभी आपको निम्नलिखित तार[२] भी भेज दिया था।

मुझे उम्मीद है कि आप जमानतनामोंको ठीक तरहसे पूरे कराके मुझे भेज देंगे। न्यासियों द्वारा यह बात स्वीकार की जानी चाहिए कि सोराबजीको जो धन-सम्पत्ति सौंपी जायेगी, उसमें सबसे पहली देयता इस ऋणकी ही रहेगी। कृपया बीमा पालिसी-

  1. डर्बनकी "विलिंग्स्टन और डुल" नामक सॉलिसिटरोंकी पेढ़ीके श्री डुलने अपने ५ जूनके पत्र में गांधीजोको लिखा था कि सोराबजी अत्यन्त गम्भीर आर्थिक स्थितिमें पड़ गये हैं और अगर सोराबजीकी जीवन बीमा पालिसीमें जमानतके आधारपर उन्हें रुस्तमजी जीवनजी, घोरखोदू न्यासकी ओरसे कुछ धन पेशगी दे दिया जाये तो उनके इस दिवालियेपनको दूर किया जा सकता है।
  2. यह उपलब्ध नहीं है।