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४२९. धर्म-संकट

एक सज्जन लिखते हैं :[१]

यह बिलकुल सम्भव है कि 'देशी मिलोंके कपड़ेका व्यवहार करनेकी अपेक्षा विलायती कपड़े पहनना अच्छा है'; वाक्य 'हिन्द-स्वराज्य' में है।[२] जिस बातको लेकर यह वाक्य लिखा गया था, उस सम्बन्धमें मेरे विचार जो सन् १९०८ में थे[३], वे आज भी हैं। उसमें जो कहा गया है वह केवल सिद्धान्तपर अवलम्बित है, कुछ परिस्थितियों में इस विचारपर अमल नहीं किया जा सकता, इसलिए हिन्दी आवृत्तिकी प्रस्तावनामें मैंने पाठकोंको सावधान कर दिया है।[४] और इस परिवर्तनपर भी मैं कायम हूँ। मिलोंके जालमें हम जितने फँस गये हैं, अगर उतने न फँसे होते और अगर यह प्रश्न होता कि हम नई मिलें खोलकर कल्पित स्वदेशी मालका व्यवहार करें या विदेशी मिलोंका माल मँगाकर उसका व्यवहार करें तो में विदेशी मिलोंके मालको ही पसन्द करता, क्योंकि मेरी यह मान्यता नहीं है कि दुनियामें कारखानोंकी प्रवृत्तिको बढ़ाया जाना चाहिए। मिलोंके व्यवसायके बिना भी कपड़ा बन सकता है; जितना चाहिए उतना बन सकता है, और हम यह भी देख चुके हैं कि इसमें उसकी बनिस्बत समय भी बहुत नहीं लगता। इससे मुझे ऐसा मालूम नहीं होता कि मिल-व्यवसायमें किसी प्रकारका परमार्थ और लोक कल्याण है।

किन्तु परिस्थिति इससे विपरीत ही है। हमारे देश में बहुतसी मिलें हैं। इस समय मिलोंको बन्द करनेकी बात मालिकोंको समझाना सम्भव नहीं है। विदेशी कपड़ेका बहिष्कार इष्ट और आवश्यक है। यह हमारा धर्म है— हमारा अधिकार है। इस धर्मका पालन करनेमें, अपने सहज-सुलभ प्राप्त साधनोंका हमें उपयोग करना ही चाहिए। अगर हम ऐसा न करें तो यह हमारी समझकी कमी मानी जायेगी।

धर्म कोई ऐसी स्वतन्त्र वस्तु नहीं है जिसमें परिस्थितिके बदलनेसे परिवर्तन न हो। उत्तरी ध्रुवमें रहनेवालोंके लिए जो धर्म है, यदि भूमध्यरेखाके पास रहनेवाले भी उसका पालन करें तो शायद उसे अधर्म ही गिना जायेगा। स्वतन्त्र तो एक ही

  1. पत्र यहाँ नहीं दिया जा रहा है। पत्र-लेखकने गांधीजीसे यह बतानेका अनुरोध किया था कि भारतकी देशी कपड़ा मिलोंके बारेमें उनका रुख किस कारण बदला। गांधीजीने हिन्द स्वराज्य में लिखा था कि देशमें कपड़ेकी मिलें खोलनेके बजाय कुछ समयतक मैनचेस्टरसे कपड़ा मँगाते रहना देशके लिए हितकर हो सकता है; किन्तु १९२१ में उनका रुख बदल गया।
  2. पूनाकी एक सार्वजनिक सभामें बालूकाका कानिटकरने अपने भाषण में यह वाक्य कहा था।
  3. हिन्द स्वराज्य, १९०९ में लिखा गया था।
  4. पत्र-लेखकने १९२१ में प्रकाशित हिन्दी संस्करणको भूमिकामें से यह अंश उद्धृत किया था, मिलोंके सम्बन्धमें मेरे विचारोंमें इतना परिवर्तन हुआ है कि हिन्दुस्तानकी आजकी हालत में मैनचेस्टरके कपड़ेके बजाय हिन्दुस्तानकी मिलोंको प्रोत्साहन देकर भी हमारी जरूरतका कपड़ा हमारे देश में ही पैदा कर लेना चाहिए।