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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

उपर्युक्त पत्र लिखनेवाले भाईका हेतु निर्मल है, यह मैं जानता हूँ। किन्तु इसमें भी मुझे कोई शंका नहीं है कि सत्याग्रहका ऐसा अर्थ करना भ्रान्तिपूर्ण है, सत्याग्रह व्यक्तिगत स्वार्थके लिए ठीक हो ही नहीं सकता। यदि हम उपवास करके पैसा वसूल करनेकी पद्धतिको बढ़ावा दें तो अनेक दुष्ट लोग इसका दुरुपयोग करने लगेंगे। आज भी देश में बहुत से लोग ऐसा करते हैं। उपवासका दुरुपयोग करनेवालोंकी बात लेकर भुक्त भोगियोंके उपवासको अनुचित बताना सही नहीं कहा जा सकता। किन्तु सच्चे और झूठेका निर्णय कौन करेगा? सभी अपनेको सच्चा कहेंगे। जिसे हमने न्याय्य समझा हो, वह अन्याय भी तो हो सकता है। इसलिए सत्याग्रहके अस्त्रका उपयोग परमार्थके लिए ही किया जा सकता है। स्वयं सत्याग्रहीको दुःख भोगने और घनकी हानि सहनेको तो तैयार ही रहना चाहिए। जब असहयोग शुरू किया गया था तब अदालतोंके बहिष्कारका लाभ उठाते हुए अप्रामाणिक आदमी असहयोगियोंका पैसा दबा बैठेंगे—यह भय तो था ही। उस समय हम लोगोंने यही माना था कि जोखम उठानेमें ही असहयोगकी खूबी है।

और फिर विरोधियोंके प्रति अनशन रूपी सत्याग्रह किया ही नहीं जा सकता। इस शस्त्रका उपयोग केवल हितके साथ ही और वह भी उसके हितके लिए ही किया जा सकता है। हिन्दुस्तान जैसे देशमें, जहाँ लोगोंमें दयाभाव भरा हुआ है, अनशन करके पैसा वसूल करना तो अत्याचार ही है। ऐसे मनुष्योंको में जानता हूँ कि जिन्होंने ऊबकर, केवल झूठा तरस खाकर पैसा दे दिया है। इसलिए इस देश में सत्याग्रहके धर्मको जाननेवालेको चाहिए कि बहुत ही सावधानीसे काम ले। पचास आदमी जिसे अपनी सही लेनदारी मानते हों, उसे वे अनशन करके वसूल कर लें तो मैं इसे सत्याग्रहकी नहीं, दुराग्रहकी ही जय मानूंगा। सत्यका आग्रह करते-करते मर जानेमें ही सत्याग्रहकी जय है। वे जिस बातके लिए आग्रह करते हैं वह सफल हो चाहे न हो, इसके विषयमें सत्याग्रही निश्चिन्त रहता है; और यह बेफिकी अपना लेना-पावना वसूल करनेके लिए किये गये अनशनमें नहीं हो सकती। इसलिए सभी पहलुओंसे व्यक्तिगत लाभके किये गये अनशनमें मुझे तो अविनय और अज्ञानका ही आभास मिलता है ।

[गुजरातीसे]
नवजीवन, १२-९-१९२६