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और अन्य बातें प्रकाशित करता रहता हूँ, उससे खादीकी जो धीरे-धीरे परन्तु दृढ़ता- पूर्वक प्रगति हो रही है। उस पर किसी भी शंकाशील हृदयको यकीन हुए बिना न रहेगा। और अब जो प्रगति हो रही है, वह किसी क्षणिक उत्साह के कारण नहीं परन्तु खादीमें बुद्धिपूर्वक दृढ़ विश्वास होनेके कारण ही हो रही है। यदि असहयोगियोंको अहिंसात्मक असहयोगपर विश्वास है तो उन्हें यही प्रतीति होगी कि वह नष्ट नहीं हुआ है, वह जिन्दा है और जब सारा आकाश काले घोर बादलोंसे ढँक जायेगा, तब वह अपनी करामात दिखायेगा। उस समय यही प्रतीत होगा कि भारतकी आशाओंका वही एक आधार है।

गुरुकी तलाश

'सत्यके प्रयोग अथवा आत्मकथा 'के'[१] भाग २के प्रथम अध्यायमें मैंने लिखा था कि मैं अब भी गुरुकी तलाश में हूँ। इसके उत्तर में हिन्दू, मुसलमान तथा ईसाई महाशयोंने मुझे बड़े लम्बे-लम्बे पत्र लिखे हैं और मुझे यह बतानेका प्रयत्न किया है कि गुरुकी प्राप्ति कैसे की जाये। अभी पत्र आते ही जा रहे हैं। कुछ लोगोंने तो मुझे कहाँ जाना चाहिए और किससे मिलना चाहिए इत्यादि बातें भी लिखी हैं। कुछ लोग मुझे अमुक किताबें पढ़ने के लिए लिखते हैं। मैं इन पत्र-लेखकोंका, जिन्हें मेरी इतनी चिन्ता है, बड़ा ही उपकार मानता हूँ। परन्तु उन्हें और दूसरे लोगोंको भी यह जान लेना चाहिए कि मेरी कठिनाई तो मूलभूत है। उसका मुझे कोई दुःख भी नहीं है। वह मूलभूत है शायद इसलिए कि गुरुके सम्बन्धमें मेरा आदर्श कोई साधारण आदर्श नहीं है। पूर्णता प्राप्त व्यक्तिके बिना मुझे किसीसे भी सन्तोष न होगा। मैं तो ऐसे गुरुकी तलाशमें हूँ जो देहधारी होनेपर भी अविकारी है, जो विकारोंसे निर्लिप्त है, स्त्री-पुरुषके भावसे मुक्त है और जो सत्य और अहिंसा का पूर्ण अवतार है। और इसलिए न वह किसीसे डरता है और न कोई दूसरा ही उससे डरता है। जैसे गुरुके लिए प्रयत्न किया जाता है और अन्वेषक जिस योग्य होता है वैसा ही गुरु उसे मिलता है। मुझे जैसे गुरुकी चाह है वैसा गुरु प्राप्त करनेकी कठिनाई तो स्पष्ट ही है। परन्तु उसकी मुझे कोई चिन्ता नहीं, क्योंकि मैंने ऊपर जो बात कही है, उसका स्वाभाविक परिणाम यही हो सकता है कि मुझे देहधारी गुरु प्राप्त करने के लिए खुद पूर्ण बननेका प्रयत्न करना चाहिए और अभी तो केवल मुझे ऐसे गुरुके आदर्शका ही चिन्तन करना चाहिए। सत्यके लिए सच्चे

हृदयसे सतत और विनम्र प्रयत्न करने में ही मुझे मेरी सफलता दिखाई देती है। मैं अपना मार्ग जानता हूँ। वह मार्ग सीधा और सँकरा है। वह तलवारकी धारके समान है। मुझे उसपर चलनेमें आनन्द मिलता है। जब मैं कभी उसपरसे फिसल जाता हूँ तो रोता हूँ। 'जो प्रयत्न करता है उसका कभी नाश नहीं होता।' इस कथनपर मुझे अटल श्रद्धा है। इसलिए अपनी दुर्बलताके कारण मैं चाहे हजार वार भी अस फल क्यों न हो जाऊँ, मैं अपनी इस श्रद्धाका त्याग न करूंगा; बल्कि यही आशा

  1. १. गांधीजोकी आत्मकथा यंग इंडियाके ३०-१२-१९२५ के अंकसे क्रमबद्ध प्रकाशित हो रही थी।