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४२७. पत्र : नानाभाई भट्टको

आश्रम
साबरमती
शनिवार, भाद्रपद सुदी ४, ११ सितम्बर, १९२६

भाई नानाभाई,

तुम्हारा पत्र और तीनों निमन्त्रण-पत्र मिले। मैंने निमन्त्रण-पत्र पढ़ लिये हैं, उन्हें लौटा रहा हूँ। तुमने जो जवाब लिखा है, उसके बारेमें मुझे कुछ भी नहीं कहना है। इसलिए उसपर टीका करके तुम्हारा और अपना समय बरबाद नहीं करूंगा। भाई नरहरिके बारेमें तुमने जो किया है, ठीक ही किया है। पूंजाभाईके पत्रकी नकलके साथ जो पत्र मैंने तुम्हें भेजा था उसकी पहुँच अभीतक प्राप्त नहीं हुई है। वह पत्र मिल तो गया ही होगा। तुमने अँगूठा ही कटवा डाला था, तब तो तुमने बड़े साहसका परिचय दिया है। मैं तो यही समझा था कि तुमने छोटा-सा चीरा लगवाया है। खैर, अब तो चलने-फिरने लायक हो गये होगे?

श्री नानाभाई

दक्षिणामूर्ति

भावनगर

गुजराती प्रति (एस० एन० १२२७८) की फोटो-नकलसे।

४२८. सत्याग्रह अथवा दुराग्रह

सत्याग्रह के अनेक रूप हैं। उनमें उपवास भी आ जाता है। एक सज्जनने सवाल किया है :

एक आदमीको किसीसे अपनी रकम वसूल करनी है। लेनदार असहयोगी हैं, इसलिए अदालतमें नहीं जा सकते। देनदार धनके मदमें सुनता ही नहीं है। मामला पंचोंके सामने रखनेपर भी राजी नहीं होता। अब अगर लेनदार उसके घरपर धरना दे और उपवास करे तो क्या यह शुद्ध सत्याग्रह नहीं गिना जायेगा इसमें उपवास करनेवाला किसीकी हानि नहीं करता । रामराज्यके समयसे दिया हुआ पैसा वसूल करनेकी यह प्रणाली चली आती है। परन्तु आप तो इसे हठधर्मी और अविवेकमें गिनते हैं। यदि आप इसका पूरा खुलासा करें तो ठीक हो।