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कुऐँसे निकले, खाईमें गिरे

कुछ बहुत अच्छा नहीं होगा। श्रीयुत दासने कटकमें एक चर्मशाला खुलवाई है। यह कारखाना, कितने ही नवयुवकोंके लिए, जो उसके पहले महज अकुशल मजदूर थे, शिक्षा-का केन्द्र बना हुआ है। मगर सबसे बड़ा उद्योग जिसमें करोड़ोंकी मेहनत दरकार है, सूत-कताई ही है। जरूरत इस बातकी है कि इस देशके किसानोंकी बहुत बड़ी संख्याको कोई एक और हुनर कहा जा सकनेवाला काम दिया जाये जिससे उनके हाथ और दिमाग दोनोंको तालीम मिले। उनके लिए सबसे अच्छी और सबसे सस्ती जो तालीम सोची जा सकती है, वह कताई है। यह सबसे सस्ती तो इसलिए है कि इससे तुरन्त ही आमदनी भी होने लगती है और यदि हमें भारतमें सार्वजनिक शिक्षा-का प्रचार करना है तो प्राथमिक शिक्षा, लिखाई, पढ़ाई और हिसाबकी नहीं, बल्कि सूत कातने और उससे सम्बन्धित अन्य ज्ञानकी होगी । और जब इसके जरिये दिमाग और आँखोंकी पूरी तालीम हो चुकेगी तब कहीं बालक उक्त तीनों बातें सीखने योग्य होगा। मैं जानता हूँ कि यह बात कुछ लोगोंको तो असम्भव, और कुछको बिलकुल अव्यावहारिक मालूम होगी । मगर जो ऐसा सोचते हैं, वे हमारे करोड़ों भाई-बहनोंकी हालत नहीं जानते। उन्हें यह भी नहीं मालूम है कि हिन्दुस्तानके किसानोंके करोड़ों बच्चोंको शिक्षा देनेके क्या मानी हैं। और यह शिक्षा तबतक नहीं दी जा सकती, जबतक शिक्षित भारतवासी, जिन्होंने इस देशमें राजनैतिक जागृति फैलाई है, श्रमके गौरवको नहीं समझते और जबतक हरएक नौजवान चरखा चलानेकी कलाको सीखना और गाँवोंमें उसका पुनरुद्धार करना अपना परम कर्तव्य नहीं मानता।

[अंग्रेजीसे]
यंग इंडिया, ९-९-१९२६

४०८. कुएँसे निकले, खाईमें गिरे

जो प्रवासी उपनिवेशोंसे लौटकर कलकत्तामें रुके पड़े हैं उनकी स्थितिके सम्बन्धमें भारतीय साम्राज्यीय नागरिकता संघको दिया गया विस्तृत विवरण पढ़कर बहुत दुःख होता है। उससे पता चलता है कि २,००० से भी अधिक लौटे हुए प्रवासी कलकत्ताके आसपासके गन्दे स्थानोंमें पड़े हुए हैं। ये लोग फीजी, ट्रिनीडाड, सरीनम तथा ब्रिटिश गियानासे आये हैं। उन्हें अपनी जन्मभूमिको छोड़नेके लिए मजबूर करने के कारणोंमें मातृभूमिके दर्शनोंकी लालसा तथा भारतके स्वशासन प्राप्त करनेकी उड़ती हुई खबर— दो मुख्य कारण हैं। किन्तु जब उन्होंने यह देखा कि गाँवोंमें उनके सम्बन्धी उन्हें स्वीकार करने को तैयार नहीं हैं तो वे अब फिर उन्हीं स्थानोंमें वापस जाना चाह रहे हैं, जहाँसे वे आये हैं। अब वे कहते हैं, 'हमें भारतसे बाहर कहीं भी भेज दो।' इस बीच वे कलकत्तामें थोड़ा बहुत कमाकर बड़े कष्टोंमें जीवन बिता रहे हैं। वे सभी भूखके मारे हुए दिखाई देते थे और उनके कष्टोंका कोई पारावार न था।' उनमें से अधिकांश लोग उपनिवेशोंमें पैदा हुए हैं, इस तथ्यसे