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बाल-विवाहके समर्थन में

है, बल्कि उन लोगोंपर पाप लगनेकी बात की है जो लड़कियोंका विवाह मातृत्वका भार सँभाल सकनेसे पहले ही कर देनेका आग्रह करते हैं। अनुदारताका प्रश्न तो तब उठता है जब किसी काल्पनिक व्यक्तिपर नहीं, बल्कि जीवित व्यक्तिपर अकारण कोई अशुद्ध भाव होनेका आरोप लगाये। परन्तु में पूछता हूँ कि क्या इस पत्र लेखकके पास कोई ऐसा प्रमाण है, जिसकी बिनापर वह यह कह सके कि जिन स्मृतिकारोंने आत्मसंयमका उपदेश दिया, उन्होंने उन्हीं स्मृतियों में छोटी-छोटी बालिकाओंके विवाहकी भी आज्ञा दी? इसकी अपेक्षा क्या यह मानना अधिक उदारतापूर्ण न होगा कि ऋषिगण अपवित्रता और मानवके शारीरिक विकासके मूल नियमोंसे अनभिज्ञ नहीं हो सकते।

लेकिन यदि लड़कियोंके बालविवाहकी कम उम्रके विवाहकी नहीं, क्योंकि इसमें तो २५के पूर्व किया गया हर विवाह आता है— आज्ञा देनेवाले ग्रन्थ भी प्रामाणिक पाये जायें, तो हमें चाहिए कि हम प्रत्यक्ष अनुभव और वैज्ञानिक ज्ञानको दृष्टिमें रखकर उनका त्याग कर दें। मैं लेखकके इस कथनकी सचाईपर सन्देह प्रकट करता हूँ कि लड़कियोंके बाल विवाहकी प्रथा हिन्दू समाजमें सर्वत्र प्रचलित है। अगर यह बात सच हो कि लाखों बालिकाएँ बचपनमें ही विवाहिता हो जाती हैं यानी पत्नियोंकी तरह रहने लगती हैं तो मुझे बहुत दुःख होगा। यदि हिन्दू समाजमें लाखों कन्याएँ ग्यारह वर्षकी अवस्थामें पति-समागम करतीं होतीं तो हिन्दू जाति कभीकी नष्ट हो गई होती।

इससे यह बात भी सिद्ध नहीं होती कि यदि माता-पिता कन्याओंके लिए वर खोजना जारी रखें तो कन्याओंका विवाह और वैवाहिक जीवनका प्रारम्भ भी जल्दी ही होना चाहिए। यह कहना तो और भी कम सत्य है कि यदि लड़कियाँ अपने लिए स्वयं पति चुनेंगी तो विवाहसे पूर्व प्रेमाचार या भ्रष्टाचार होना लाजिमी ही है। आखिर यूरोपमें भी तो विवाहसे पूर्व प्रेमाचार सर्वत्र प्रचलित नहीं है और हजारों हिन्दू कन्याओंके विवाह पन्द्रह वर्षकी आयुके बाद किये जाते हैं और उनके माता-पिता उनके लिए वरोंका चुनाव करते हैं। मुसलमान तो सदा स्वयं ही अपनी सयानी लड़कियोंके लिये पति चुनते हैं। यह बिल्कुल दूसरी ही बात है कि चुनाव स्वयं लड़की करती है या उसके माता-पिता; यह तो प्रथापर निर्भर है।

इस पत्रके लेखकने इस बातके समर्थनमें कोई सबूत पेश नहीं किया कि सयानी उम्रमें व्याही हुई लड़कियोंकी सन्तानें बहुत छोटी अवस्थामें विवाहित लड़कियोंकी सन्तानोंसे दुर्बल होती हैं। भारतीय तथा यूरोपीय दोनों समाजोंके मेरे अनुभवोंके होते हुए भी मैं उनके आचारोंकी तुलना करना नहीं चाहता। यदि थोड़ी देरके लिए यह मान भी लिया जाये कि यूरोपीय समाजका आचार हिन्दू-समाजके आचारसे निकृष्ट है, तो क्या उससे यह अनुमान निकालना ही स्वाभाविक हो सकता है कि उसकी इस निकृष्टताका कारण उनमें वयस्क विवाहोंकी प्रथाका होना है?

अन्तमें, मद्रासकी घटना पत्रप्रेषकको कुछ मदद नहीं पहुँचाती, प्रत्युत उनके द्वारा उसका उपयोग किये जानेसे तो यही सिद्ध होता है कि उन्होंने तथ्योंकी उपेक्षा