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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

तो मानता हूँ कि किसी भी बातके दो पक्ष तो होते ही हैं। धर्ममें कुछ रहस्य बनाये रखनेके सिद्धान्तके पक्षमें बहुत कुछ कहा जा सकता है। हिन्दू धर्म तो इस दोषसे निश्चय ही मुक्त नहीं है। किन्तु मेरे लिए उसे स्वीकार करना आवश्यक नहीं है।

मैंने अपने मिलनेवालोंसे यह अनुरोध बार-बार किया है और एक बार फिर करता हूँ कि अगर उन्हें मुझसे मिलना हो और मेरे बारेमें कुछ छापना हो तो वे मुझसे हुई अपनी बातचीतका जो विवरण देना चाहते हों उसे सुधार और पुष्टि करनेके लिए मेरे पास भेज दें। वे इससे मुझपर अनुग्रह तो करेंगे ही, सत्यकी सेवा भी करेंगे।

[अंग्रेजीसे]
यंग इंडिया, ९-९-१९२६

४०६. बाल-विवाहके समर्थनमें

'यंग इंडिया' के एक पाठक लिखते हैं :

२६ अगस्त सन् १९२६ के 'यंग इंडिया' में आपके 'बाल-विवाहका अभिशाप' शीर्षक लेखमें यह वाक्य पढ़कर मुझे बहुत ही दुःख पहुँचा है कि जिसे आत्मसंयमसे कुछ भी सरोकार न हो और जो पापमें डूबा हो, वही यह कह सकता है कि कन्याके रजस्वला होनेके पूर्व ही उसका विवाह कर देना चाहिए और ऐसा न करना पाप है।
मेरी समझमें यह नहीं आता कि आप अपनेसे भिन्न राय रखनेवालोंको उदार दृष्टि से क्यों नहीं देख सकते। कोई भी इतना तो अवश्य ही कह सकता है कि बाल-विवाहको व्यवस्था देकर स्मृतिकार मनुने सरासर भूल की है। परन्तु मैं यह कहना अनुचित मानता हूँ कि जो वह बाल-विवाहका आग्रह करता है, वह 'पापमें डूबा हो।' यह कहना वादविवादको शिष्टताकी मर्यादाओंका उल्लंघन करता जान पड़ता है। वास्तवमं मैंने बाल-विवाहके विरुद्ध ऐसी बात पहली ही बार सुनी है। जहाँतक मुझे मालूम है न तो कभी हिन्दू- समाज सुधारकोंने ऐसा कहा है और न ईसाई पादरियों। इसलिए, जब मैंने इस बातको महात्मा गांधीकी, जिन्हें मैं कमसे-कम प्रतिद्वन्द्वीके प्रति उदारतापूर्ण व्यवहार करनेमें सम्पूर्ण पुरुष मानता हूँ, लेखनीसे निःसृत देखा तब उससे मुझे कैसा धक्का लगा होगा उसकी आप कल्पना तो करें।
आपने तो एक-दोको नहीं, बल्कि प्रायः प्रत्येक हिन्दू स्मृतिकारको त्याज्य ठहराया है, क्योंकि जहाँतक मुझे मालूम है, प्रत्येक स्मृतिकार लड़कियोंके बाल-विवाहका आदेश देता है। आप कहते हैं कि लड़कियोंके बाल-विवाहका आदेश देनेवाले अंश क्षेपक मात्र हैं; किन्तु इसपर विश्वास करना असम्भव ही है।