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टिप्पणियाँ

मैं सुधारकोंके इस छोटे-से दलको बधाई देता हूँ। जिस अधिकारसे पंचमोंको वंचित रखा गया है, उसका स्वयं उपयोग करनेसे इनकार करके उन्होंने उचित ही किया है। जो न्यायका दावा करते हैं उन्हें शुद्ध होना ही चाहिए। थियोंको चाहिए कि वे दूसरोंके लिए ऐसी दीवार खड़ी न करें जिसे अपने लिए खड़ी करनेपर वे स्वयं तोड़ना चाहें। हमें वाइकोम सत्याग्रहसे यही शिक्षा मिलती है। इसे कदापि नहीं भूलना चाहिए। इसलिए सुधारकोंको सच्चे सत्याग्रहीकी भावनासे तथा क्रोधका परित्याग करके दृढ़ निश्चयके साथ यह संघर्ष जारी रखना चाहिए। इस प्रकार वे यथाशीघ्र अल्पसंख्यक न रहकर बहुसंख्यक हो जायेंगे। समयका प्रवाह उनके अनुकूल है।

झूठका अम्बार

यदि आज दुनिया के ज्यादातर अखबार बन्द कर दिये जायें तो ससे दुनियाका कोई नुकसान नहीं होगा, बल्कि शायद इससे उसे चैन ही मिलेगा। प्रायः सच्ची बातोंके बजाय अखबारोंमें झूठी गप्पें छपती हैं। ये विचार मेरे मनमें 'मैसेंजर ऑफ अमेरिका' नामक पत्रमें मेरी किसी कथित 'भेंट' की रिपोर्ट छपी देखकर उठे हैं। यह अमेरिकाकी दर्शन-सभाका मुखपत्र है। किसी दर्शन-सभाका मुखपत्र भी सत्यके बदले गप्पका ही प्रचार क्यों करता है, यह बात मेरी समझके बाहर है।

अगर उसमें मेरे थियोसॉफी विषयक विचार तोड़े-मरोड़े न गये होते तो मैं इस 'भेंट' पर कुछ भी ध्यान न देता।

इसलिए ऐसी गप्पोंका तो मुझे कोई खण्डन ही नहीं करना है कि 'मैं पुराने ढरेंके चरखेपर सूत कात रहा था' अथवा 'मेरी कोठीके बाहर आमके पेड़ हैं।' इससे भी बड़ी गप्प यह है कि हम "भारतीयोंको आत्मत्याग करने के लिए नैतिक शक्ति अमेरिका अथवा अन्य बड़े राष्ट्रोंकी सहानुभूतिसे ही मिलती है।" मुझे इसे भी दरगुजर कर देना चाहिए।

हाँ, थियोसॉफी सम्बन्धी गप्पका खण्डन तत्काल करना चाहिए। बताया गया है कि अन्य बातोंके साथ-साथ मैंने यह भी कहा कि मेरी सहानुभूति थियोसॉफिकल सोसाइटीसे नहीं है। मैं उसका सदस्य तो अब भी हूँ, मगर उक्त आन्दोलनसे मुझे सहानुभूति नहीं है। जो-कुछ मैं कह सकता था, यह ठीक उसका उलटा है, क्योंकि थियोसॉफिकल सोसाइटीका सदस्य न तो मैं कभी रहा हूँ और न अब हूँ, किन्तु उसके “वसुधैव कुटुम्बकम् और तज्जनित सहिष्णुताके सन्देशसे मेरी सहानुभूति सदा रही है और अब भी है। थियोसॉफिस्ट मित्रोंसे मुझे बड़ा लाभ पहुँचा है। मेरे अनेक मित्र थियोसॉफिस्ट भी हैं। श्रीमती ब्लैवट्स्की, डाक्टर बेसेंट या कर्नल ऑलकाटके विषयमें टीका करनेवाले कुछ भी क्यों न कहें, मानवजातिके प्रति उनकी सेवाका मूल्य हमेशा ही ऊँचा माना जायेगा। मेरे इस सभाके सदस्य बननेमें जो बाधा रही है, उसका कुछ- कुछ ठीक पता इस भेंटसे लगता है। वह है इस सम्प्रदायका गुप्त पक्ष— इसकी गूढ़ता। मुझे यह बात कभी नहीं जँची। मैं तो सर्वसाधारणमें ही रहना चाहता हूँ । किसी प्रकारका रहस्य जनतन्त्रीयताके भावको बाधा पहुँचाता है। किन्तु में इतना