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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

यह कोई काल्पनिक तसवीर नहीं है। यह एक तथ्य है और इसे जानते हुए भी कितने ही शिक्षक इसे छुपाते हैं। यह बात पहले भी मेरे सामने आई है। आजसे कोई आठ साल हुए, दिल्लीके एक शिक्षकने मेरा ध्यान इस ओर खींचा था। इसके इलाजके बारेमें अबतक खानगीमें ही मैं बातें करता आया हूँ और चुप रहा हूँ। यह दोष सिर्फ हिन्दुस्तानतक ही सीमित नहीं है। मगर बाल-विवाहके पापके कारण हमपर इसका प्रभाव अधिक घातक पड़ा है। इस बहुत ही नाजुक और मुश्किल सवालकी आम चर्चा जरूरी हो गई है, क्योंकि अबसे कुछ साल पहले इतनी स्वच्छन्दतासे स्त्री-पुरुषोंके सम्बन्धोंकी चर्चा करना गैरमुमकिन था, जितनी स्वच्छन्दतासे वह आज प्रतिष्ठित पत्रोंतकमें की जाती है।

संभोगको देह और दिमागकी तन्दुरुस्तीके लिए फायदेमन्द, नैतिक, जरूरी और स्वाभाविक समझनेकी प्रथासे इस बुराईकी वृद्धि हुई है। हमारे सुशिक्षित पुरुषों द्वारा गर्भनिरोधक साधनोंके स्वच्छन्द व्यवहारके समर्थनसे कामवासनाको अपनी वृद्धिके लिए समुचित वातावरण मिला है। छोटे लड़कोंके कोमल और संग्राहक मस्तिष्क ऐसे नतीजे बहुत जल्दी निकाल लेते हैं कि उनकी अधार्मिक इच्छाएँ अच्छी और उचित हैं। इस भयंकर बुराईके प्रति माता-पिता और शिक्षक, खेदजनक और प्रायः अपराधपूर्ण उदासीनता और सहनशीलता दिखलाते हैं। मेरी समझमें सामाजिक वातावरणको पूरा-पूरा शुद्ध बनाये बिना यह बुराई रोकी नहीं जा सकती। विषयभोगके विचारोंसे भरे हुए वातावरणका अज्ञात और सूक्ष्म प्रभाव देशके विद्यार्थियोंके मनोंपर पड़े बिना रह ही नहीं सकता। नागरिक जीवनकी परिस्थिति, साहित्य, नाटक, सिनेमा, घरेलू वातावरण और कितनी ही सामाजिक प्रथाएँ— इन सबका मिला-जुला एक ही असर होता है और वह है कामवासनाकी वृद्धि। जिन छोटे लड़कोंमें यह पाशविक प्रवृत्ति जग गई है, इन प्रभावोंके होते हुए उनमें इसके जोरको रोकना गैर- मुमकिन है। ऊपरी उपायोंसे काम नहीं चलनेका। यदि वयस्क और प्रौढ़ नई पीढ़ीके प्रति अपना कर्त्तव्य पूरा करना चाहते हैं तो उन्हें यह सुधार पहले अपनेसे ही शुरू करना होगा।

[अंग्रेजीसे]
यंग इंडिया, ९-९-१९२६