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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

बता दी थी। उस वक्त मेरी सेहत और आश्रमकी जरूरतने यह लाजिमी कर दिया था कि मैं तकलीफदेह सफर और बहुत मेहनतके सार्वजनिक कार्योंसे कुछ फुरसत लूं। यदि मैंने कौंसिलोंके कामोंमें दखल नहीं दिया है तो इसका कारण यही है कि कदाचित् वे काम मेरी रुचिके अनुकूल नहीं हैं। और कौंसिलोंके द्वारा हमें स्वराज्य मिल सकता है, मेरी ऐसी श्रद्धा ही नहीं है। मैंने हिन्दू-मुस्लिम झगड़ोंमें हाथ डालना इसलिए बन्द कर दिया है कि मेरा पक्का यकीन है कि ऐसे मौकेपर इनमें हाथ डालनेसे नुकसान ही हो सकता है। अब रहे अस्पृश्यता, राष्ट्रीय शिक्षा-संस्थाएँ और चरखा। इन तीनोंके लिए मैं जितना कर सकता हूँ उतना कर ही रहा हूँ।

इसलिए मैं उक्त मित्रोंसे यह कहनेका साहस करता हूँ कि उन्हें जो मेरा अकर्म प्रतीत होता है, वह वास्तवमें मेरा एकाग्र चित्तसे किया गया कर्म है।

मैं इन मित्रोंकी तरह निराश कतई नहीं हूँ। हिन्दू-मुसलमानोंके ये झगड़े अनजाने में स्वराज्यकी लड़ाई ही हैं। इन दोनोंमें से हरएक यह जानता है कि स्वराज्य आ रहा है। इन दोनोंमें से हरएककी यह कोशिश है कि वह स्वराज्यके आनेके समय उसके लिए तैयार रहे। हिन्दू सोचते हैं कि वे मुसलमानोंकी बनिस्बत जिस्मानी ताकतमें कमजोर हैं और मुसलमान खयाल करते हैं कि उनके पास शिक्षा और सम्पत्ति कम है। अब वे दोनों वही कर रहे हैं जो आजतक कमजोर लोग करते आये हैं। अतः यह लड़ाई चाहे जितनी अशुभ क्यों न हो, हमारी तरक्कीकी निशानी है। यह अंग्रेजोंकी 'वॉर्स ऑफ द रोजेज' की तरह घरेलू लड़ाई है। उससे एक बड़ा शक्तिशाली राष्ट्र तैयार होगा। इस खूंरेजीसे एक बेहतर दवा सन् १९२० में हमारे पास थी; लेकिन हम उसे नहीं अपना सके। लेकिन लाचारी और भीरुतासे तो रक्तपात भी अच्छा है।

यहाँतक कि मोतीलालजी तथा लालाजीके बीचमें जो अशोभनीय द्वन्द्व चल रहा है, वह भी उसी लड़ाईका एक अंग है। हिन्दुस्तानकी आजादीके दुश्मन चाहें तो इन देशभक्तोंके मतभेदोंपर खुशियाँ मनायें। लेकिन उनकी खुशियाँ खत्म होनेसे पहले ही ये देशभक्त फिर एक झण्डेके नीचे काम करते दिखाई देंगे। ये दोनों सज्जन देशप्रेमी हैं। लालाजी समझते हैं कि साम्प्रदायिकता अनिवार्य है। पण्डितजीको उसकी कल्पनातक से चिढ़ है। यह कौन कहेगा कि इनमें से एककी बात ही ठीक है? दोनोंकी प्रवृत्तियाँ वर्तमान वातावरणकी प्रतिध्वनियाँ-मात्र हैं। लालाजीने राजनैतिक क्षेत्रमें स्वराज्यका मन्त्र जपते हुए ही पदार्पण किया था। उन्हें आज भी उससे घृणा नहीं है। उनका विचार साम्प्रदायिक दृष्टिको मानकर स्वराज्यतक पहुँचनेका है, क्योंकि उनकी धारणा है कि यह हमारे विकासकी एक अनिवार्य मंजिल है। पंडितजीका खयाल यह है कि साम्प्रदायिकता राष्ट्रीयताके रास्तेकी बाधा है; किन्तु वे इस कारण उसपर ध्यान देना नहीं चाहते— ठीक उसी भाँति जिस भाँतिकी मानसिक उपचारकर्ता यह मानते हुए कि आरोग्य जीवनका नियम है, रोग नहीं, रोगको बड़ा महत्त्व नहीं देते। राष्ट्रका काम न तो सर अब्दुर्रहीमके बिना चल सकता है और न हकीम साहब अजमलखाँके बिना। सर अब्दुर्रहीम, जिन्होंने गोखलेके साथ-साथ, जब