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३९६. पत्र : जयसुखलाल कृष्णलाल मेहताको

[७ सितम्बर, १९२६ या उसके पश्चात्][१]

भाईश्री ५ जयसुखलाल,[२]

आपका पत्र मिला। अब मुझे थोड़ी बेफिक्री हुई। मुद्राके प्रश्नको[३] समझनेकी मैंने कोशिश ही नहीं की। मैं ठहरा क्षणजीवी। अतः जिस क्षण मेरे ऊपर जो भार होता है उस क्षण उससे दब जाता हूँ और भार हट जानेपर फिर सीधा बैठ जाता हूँ। मैं अब मुद्रा समस्याके भारसे मुक्त हो गया हूँ।

दक्षिण आफ्रिकाके शिष्टमण्डलके विषयमें मैंने लालजी सेठको लिखा है। मैं उनके उत्तरकी प्रतीक्षामें हूँ।

गुजराती प्रति (एस० एन० १२२४०) की फोटो-नकलसे।

३९७. अकर्ममें कर्म[४]

[८ सितम्बर, १९२६]

यदि जरा भी मुमकिन होता, या मेरी रायमें ऐसा करना उचित होता तो डा० सैयद महमूद तथा अन्य मित्रों द्वारा प्रकाशित सार्वजनिक अपीलमें[५] किये गये अनुरोधको मान लेनेमें मुझे बड़ी ही प्रसन्नता होती । उस अपीलपर दस्तखत करनेवालोंका यह सोचना भूल है कि मैंने सार्वजनिक कार्यसे संन्यास ले लिया है। मैंने तो एक सालतक उन सार्वजनिक कामोंके लिए अहमदाबादसे अपने बाहर जानेपर बन्दिश-भर लगाई है, जो मेरे जाये बिना सम्पन्न किये जा सकते हों। अब तो वह साल खत्म होनेपर ही है। इस बन्दिशकी वजह तो मैंने सालके शुरूमें ही पूरे तौरपर

  1. इस पत्रमें उल्लिखित लालजी सेठ नारणजीको भेजा गया पत्र ७ सितम्बर, १९२६ को लिखा गया था।
  2. भारतीय व्यापारी संघ, बम्बईके मन्त्री; जिन्होंने १७ अगस्त, १९२६ को गांधीजीसे भारतीय मुद्रासे सम्बन्धित शाही आयोगकी रिपोर्टके सिलसिलेमें भेंट की थी
  3. आयोगकी रिपोर्ट अगस्त, १९२६ में प्रकाशित की गई थी; उसमें रुपयेका मूल्य १८ पैंस स्वर्ण नियत करनेका सुझाव था जिसके विरुद्ध भारतमें आन्दोलन किया गया था।
  4. एसोसिएटेड प्रेसको अहमदाबादमें सितम्बर ८ को अपनी भेंटमें गांधीजीने बताथा था कि डा० महमूद और अन्य सज्जनोंने उनसे दुबारा सार्वजनिक जीवनको अपनाकर एक प्रातिनिधिक सम्मेलन बुलानेकी जो अपील की थी, उसके उत्तरमें यह लेख देखा जा सकता है; और यह भी कहा था कि उस अपीलपर हस्ताक्षर करनेवाळे लोगोंने जो-कुछ करनेको कहा है, वे वैसा करने में असमर्थ हैं।
  5. देखिए परिशिष्ट ४।