३८४. पत्र : द० बा० कालेलकरको
आश्रम
साबरमती
रविवार, श्रावण बदी १४, ५ सितम्बर, १९२६
जनेऊ पहननेके बारेमें आपका पत्र मिला। जो लोग जनेऊ पहनते हैं, वे इसे उतार दें ऐसा मैं नहीं चाहता और न ही यह आग्रह है कि वे इसे वारण अवश्य करें। आजकल तो इसका महत्त्व मामूलीसे सूती धागेके बराबर भी नहीं रह गया है। मेरी स्थिति तो ऐसी ही है कि जबतक शूद्र और अन्त्यज लोग जनेऊ धारण नहीं कर पाते तबतक तो मेरे मनमें जनेऊके प्रति अरुचि ही उत्पन्न होगी। लेकिन शूद्रों और अन्त्यजोंपर बिना सोचे-विचारे और बिना किसी कारणके हम जनेऊ पहननेका बोझ क्यों लादें? इस समय सार्वजनिक रूपसे इस विषयकी चर्चा करनेसे कोई अच्छा परिणाम निकलेगा, ऐसा मुझे नहीं दीखता। पर जब आप यहाँ आयेंगे तब साथ बैठकर विचार करेंगे।
मैं ऐसा नहीं मान सकता कि अब आपकी तबीयत बिलकुल ठीक हो गई है। मैं नहीं समझता कि सोनगढ़ और अहमदाबादमें बहुत अधिक अन्तर है। खैर, जब आप यहाँ आयेंगे तब इसपर भी विचार करेंगे। शुद्ध वायु और उपयुक्त भोजन क्या होगा, मैं इन दो बातोंका पता लगाना अधिक उपयोगी मानता हूँ।
आज हम सब नदीमें डूबते-डूबते बच गये। उसका रिहर्सल भी हो गया है। अब तो उस घटनाकी याद आनेपर हँसी ही आती है। यह सब कैसे हुआ यह तो एक लम्बी कहानी है, कोई-न-कोई तो आपको सब विवरण लिख ही भेजेगा।
स्वावलम्बन पाठशाला
गुजराती प्रति (एस० एन० १२२६४) की फोटो-नकलसे।