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पत्र : देवदास गांधीको

चूंकि उसका उपयोग सत्कार्योंके लिए किया गया, इसलिए यह लौ भयंकर साम्प्रदायिक झगड़ोंके रूपमें फूट पड़ी। मुझे इसके बारेमें तनिक भी सन्देह नहीं है कि इन झगड़ोंके अन्तमें हम अपने आपको पहलेसे ज्यादा शक्तिशाली और शुद्ध पायेंगे, क्योंकि कई ऐसे लोग हैं जो इस संघर्षको नहीं चाहते और जो अहिंसाको सर्वोपरि मानते हैं और जिन्होंने इन झगड़ोंमें अपना विवेक नहीं खोया है।

आपने अन्तिम अनुच्छेदमें जो मत व्यक्त किया है वह निस्सन्देह निराधार तो नहीं है। लेकिन क्या हमारी प्रशासनिक क्षमताका शिथिल पड़ जाना कोई आश्चर्य की बात है? बहुतसे लोग खुशामद और इस तरहकी तरकीबोंसे क्लर्की—वह इससे ज्यादा और क्या है— पा लेते हैं। इसलिए अगर प्रयोगकी प्रारम्भिक अवस्थाओंमें हम अपना प्रतिनिधित्व करनेके लिए गलत व्यक्ति चुनें तो मेरे लिए यह कोई आश्चर्य-की बात नहीं होगी। वह तो इतिहासकी पुनरावृत्ति मात्र होगी। सुधारकको इस बातसे भी डरना नहीं चाहिए। कष्ट उठाये बिना स्वतन्त्रताकी लड़ाई नहीं लड़ी जा सकती। और न ही हमें इस बातसे भयभीत होना चाहिए कि आई० सी० एस० लोग काम करनेसे इनकार कर देंगे। इन प्रशासनाधिकारियोंकी आलोचना तो मैं करता हूँ, किन्तु मनुष्यके रूपमें उनकी सत्यवृत्तिमें मुझे पूरा विश्वास है और मैं मानता हूँ कि इन योग्य व्यक्तियोंको जो पतनकारी कृत्रिम प्रतिष्ठा और संरक्षण मिला हुआ है जब वह समाप्त हो जायेगा तो उनकी सत्प्रवृत्ति उभरेगी।

सदा आपकी सेवा करनेको उत्सुक।[१]

हृदयसे आपका,
मो० क० गांधी

डा० नॉर्मन लीज़

ब्रेलस्फोर्ड

डर्बीके निकट

अंग्रेजी पत्र (एस० एन० १२१७१) की फोटो-नकलसे।

३८२. पत्र : देवदास गांधीको

आश्रम
साबरमती
शनिवार, श्रावण बदी १३, ४ सितम्बर, १९२६

चि० देवदास,

तुम्हारा पत्र मिला। तुमने 'स्पेरो' का वर्णन बहुत अच्छा किया है। मैं उसे उसके सम्बन्धमें कुछ भी नहीं बताऊँगा । तुमने मुझे तो सावधान कर ही दिया है, इसलिए डरनेकी कोई बात नहीं । तुमने जो दोष लिखे हैं वे उसमें अवश्य हैं पर वे क्षणिक हैं। उसमें जो गुण हैं वे स्थायी हैं । उसके हृदयमें अपार दया और

  1. डॉ० नार्मनने २० सितम्बरको इसका उत्तर दिया था। देखिए परिशिष्ट ३ ।