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३८१. पत्र : नॉर्मन लीजको

आश्रम
साबरमती
३ सितम्बर, १९२६

प्रिय मित्र,

आपके हालके पत्रके[१] लिए धन्यवाद। आप अपने किसी भी मित्रको मेरे सारे पत्र पढ़नेको दे सकते हैं; अवश्य ही पत्र अखबारोंमें प्रकाशित न किये जायें। इसपर मुझे कोई आपत्ति नहीं है, लेकिन इससे कुछ लाभ नहीं होगा; हो सकता है कि आप और मैं जिस उद्देश्यकी पूर्तिमें लगे हुए हैं, इससे उसको नुकसान ही पहुँचे।

आपकी तरह, मुझे यह आशंका नहीं है कि मुसलमान, चाहे जैसा न्यायपूर्ण समाधान क्यों न हो, उसके आड़े आयेंगे। समाधान बहुत हदतक हिन्दुओंकी बुद्धिमत्ता, उनकी औचित्य-भावना और उनके सन्तुलित आचरणपर निर्भर करेगा। आप ऐसा क्यों कहते हैं कि इस्लाम और लोकतन्त्र परस्पर विरोधी तत्त्व हैं? बल्कि क्या प्राचीन कालके खलीफा ही दुनियाके सर्वश्रेष्ठ लोकतान्त्रिक शासक नहीं थे? सशस्त्र संघर्ष हुआ तो मैं उससे भी परेशान नहीं होऊँगा। स्वाधीनताके लिए किया जानेवाला हर सच्चा आन्दोलन प्रसव है; और उसमें उसकी वेदना और खतरे तो ग्रहीत ही हैं। अगर इस अमूल्य निधिको प्राप्त करनेके लिए हमें प्रायश्चित्तकी किसी घोर प्रक्रियासे गुजरना ही पड़े तो वह भी ठीक ही होगा। सच कहें तो वही इस समय छोटे पैमानेपर हो रहा है और सम्भव है कि दोनों दल इसीसे कोई सबक सीख लें। अभीतक अनेक निर्दोष व्यक्तियोंको मौतके घाट उतारा जा चुका है।

शिक्षाके क्षेत्रमें प्राथमिकता दिये जानेसे मेरा मतलब है कि सभी पिछड़े वर्गों के छात्रोंको विशेष छात्रवृत्तियाँ दे कर प्रोत्साहित किया जाना चाहिए। यदि राज्यको सभी वर्गोंका प्रतिनिधित्व करना है, तो उसका यह अनिवार्य कर्त्तव्य होगा कि वह समाजके सबसे कमजोर वर्गसे अपना कार्य आरम्भ करे। पिछड़े वर्गीकी वास्तविक शिक्षापर मुक्तहस्त होकर खर्च करना ही उनका असन्तोष दूर करनेके लिए रामबाण उपाय है। मैं जानता हूँ कि इस समय हिन्दू और मुसलमानोंमें असन्तोष अपनी-अपनी कमजोरीके अहसासके कारण है। हिन्दू शारीरिक क्षमता और सहनशीलताकी दृष्टिसे और मुसलमान शिक्षा और भौतिक समृद्धिकी दृष्टिसे अपनेको कमजोर महसूस करते हैं। सो मैं दोनों पक्षोंके बीच होनेवाले संघर्षको एक तरहसे शुभ लक्षण मानता हूँ। यह असलमें स्वाधीनताके संघर्षका ही एक अप्रकट रूप है। यदि दोनों पक्ष १९२० के कार्यक्रमको अपना लेते तो यह संघर्ष टल सकता था। लेकिन १९२० में लोगोंमें जो शक्ति और राष्ट्रीय चेतना आई थी वह लौ पकड़े बिना तो रह नहीं सकती थी और

  1. देखिए परिशिष्ट २।