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जीवनदायी शक्तिका संचय

अब हमें इसपर विचार करना चाहिए कि क्या पत्र-लेखक और उनके मित्रने पूर्ण ब्रह्मचर्यपालन अपना ध्येय बनाया था और अपने जीवनको उसी ढाँचेमें ढाला था। यदि उन्होंने ऐसा नहीं किया था, तो फिर यह समझनेमें कुछ कठिनाई नहीं होगी कि एकको वीर्यपातसे आराम और दूसरेको निर्बलता क्योंकर महसूस होती थी। दूसरे आदमीके लिए तो विवाह ही दवा थी। अपनी इच्छाके विरुद्ध भी जब मनमें केवल विवाह-सुखका ही विचार भरा रहे तो उस स्थितिमें अधिकांश मनुष्योंके लिए विवाह ही सबसे अधिक स्वाभाविक और इष्ट स्थिति है। जो विचार दबाये न जानेपर भी अमूर्त ही छोड़ दिया जाता है उसकी शक्ति, वैसे ही विचारकी अपेक्षा जिसको हम मूर्त कर लेते हैं, यानी अमलमें लाते हैं, कहीं अधिक होती है। जब हम उस क्रियाका उचित नियन्त्रण कर लेते हैं तो वह विचारको प्रभावित और संयत करती है। इस प्रकार हम जिस विचारको अमलमें ले आते हैं, वह हमारा बन्दी बन जाता है और काबूमें आ जाता है। इस दृष्टिसे विवाह भी एक प्रकारका संयम है।

मेरे लिए एक अखबारी लेखमें उन लोगोंके लाभके लिए, जो नियमित संयत जीवन बिताना चाहते हैं, ब्योरेवार सलाह देना ठीक न होगा। उन्हें तो मैं, कई वर्ष पूर्व इसी उद्देश्यसे लिखी हुई अपनी पुस्तक 'आरोग्यकी-कुंजी' को[१] पढ़नेकी सलाह दूंगा। नये अनुभवोंको देखते हुए इसे कहीं-कहीं सुधारनेकी जरूरत तो है, किन्तु इसमें एक भी ऐसी बात नहीं है, जिसे मैं रद करना चाहूँ। हाँ, यहाँ साधारण नियम देनेमें कोई हानि नहीं।

(१) खानेमें हमेशा संयमसे काम लें । सदा थोड़ी भूख रहते चौकेसे उठ जाएँ।

(२) बहुत गर्म मसालेवाले और घी-तेलसे तले अन्नाहारसे अवश्य बचें। पर्याप्त दूध मिले तब अतिरिक्त चिकनाई (घी, तेल आदि) लेना बिलकुल अनावश्यक है। जब शक्तिका व्यय थोड़ा ही हो तो अल्प भोजन भी पर्याप्त होता है।

(३) हमेशा मन और शरीरको शुद्ध काममें लगाये रखें।
(४) जल्दी सो जाना और जल्दी जग जाना परमावश्यक है।
(५) सबसे बड़ी बात तो यह है कि संयत जीवन बितानेमें ईश्वर प्राप्तिकी उत्कट जीवन्त अभिलाषा निहित है। जब इस परम तत्त्वका प्रत्यक्ष अनुभव हो जाता है, तब ईश्वरके ऊपर यह भरोसा बराबर बढ़ता ही जाता है कि वे स्वयं ही अपने इस यन्त्र— मनुष्यके शरीरको विशुद्ध और चालू रखेंगे। 'गीता' में कहा है :

'विषया विनिवर्तन्ते निराहारस्य देहिनः।
रसवज्ञं रसोप्यस्य परं दृष्ट्वा निवर्तते ॥'

यह अक्षरशः सत्य है।

पत्रलेखक आसन और प्राणायामकी बात करते हैं। मेरा विश्वास है कि आत्मसंयममें उनका महत्त्वपूर्ण स्थान है। परन्तु मुझे इसका खेद है कि इस विषयमें मेरे निजी अनुभव कुछ ऐसे नहीं हैं जो लिखने लायक हों । जहाँतक मुझे मालूम है, इस विषयपर इस जमानेके अनुभव के आधारपर लिखा हुआ साहित्य है ही नहीं। परन्तु

  1. देखिए खण्ड ११ और १२ ।