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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय
बहुत दुर्बलता और उत्साहहीनता आ जाती थी। उन्हें तभी पेडूके भारी दर्दकी भी शिकायत हो गई। तब उन्होंने एक वैद्यकी सलाहसे विवाह कर लिया, और अब वे बिलकुल अच्छे हैं।
ब्रह्मचर्यको श्रेष्ठताका, जिसपर हमारे सभी शास्त्र एकमत हैं, मैं बुद्धिसे तो कायल हूँ, किन्तु जिन अनुभवोंका मैंने ऊपर वर्णन किया है उनसे यह स्पष्ट होता है कि शुक्र-प्रन्थियोंसे जो वीर्य निकलता है, हममें उसे शरीरमें ही पचा लेनेकी ताकत नहीं है। इसलिए वह जहर-सा बन जाता है। अतएव मैं आपसे सविनय अनुरोध करता हूँ कि मुझ जैसे लोगोंके लाभके लिए, जिन्हें ब्रह्मचर्य और आत्मसंयमके महत्त्वके विषयमें कुछ सन्देह नहीं है, 'यंग इंडिया' में हठयोगके आसन और प्राणायाम-जैसे कुछ साधन बतायें, जिनके द्वारा हम अपने शरीरमें बननेवाले जीवनदायी तत्त्वको शरीरमें ही पचा सकें।

इन भाइयोंके अनुभव असाधारण नहीं हैं। बहुतोंको ऐसे अनुभव होते हैं। मैंने यह देखा है कि ऐसे उदाहरणोंमें प्राय: उतावलीमें अपूर्ण सामग्रीके आधारपर सामान्य निष्कर्ष निकाल लिये जाते हैं। उस जीवनदायी द्रव्यको शरीरमें ही रखने और पचानेकी योग्यता दीर्घकालीन अभ्याससे आती है। ऐसा तो होना भी चाहिए; क्योंकि किसी भी दूसरी चीजसे शरीर और मनको इतनी शक्ति प्राप्त नहीं होती। दवायें और यन्त्र, शरीरको साधारणतया अच्छी दशामें रख तो सकते हैं, किन्तु उनसे चित्त इतना दुर्बल हो जाता है कि वह मनोविकारोंका प्रतिरोध नहीं कर सकता। ये मनोविकार प्राणघाती शत्रुके समान हर किसीको घेरे रहते हैं।

हम काम तो ऐसे करते हैं जिनसे लाभ तो दूर, उलटी हानि ही होनी चाहिए; और फिर भी प्राय: साधारण संयमसे ही बहुत बड़े लाभकी आशा किया करते हैं। हमारी साधारण जीवन पद्धति विकारोंको सन्तोष देने लायक बनाई गई है; हमारा भोजन, साहित्य, मनोरंजन, कामका समय, ये सभी ऐसे रखे जाते हैं जिनसे हमारे पाशविक विकारोंको ही उत्तेजना और तृप्ति मिले। हममें से अधिकांशकी इच्छा विवाह करने, बच्चे पैदा करने और भले ही थोड़े संयत रूपमें हो, किन्तु साधारणतः सुख भोगनेकी ही होती है; और कमोबेश ऐसा सदा ही होता रहेगा।

किन्तु हमेशाकी तरह साधारण नियमके अपवाद तो आज भी होंगे ही। ऐसे भी मनुष्य हुए हैं जिन्होंने मानवजातिकी सेवामें, या यों कहो कि भगवानकी ही सेवामें, जीवन लगा देना चाहा है। वे विश्व-कुटुम्बकी और निजी कुटुम्बकी सेवामें अपना समय अलग-अलग बाँटना नहीं चाहते। यह तो ठीक ही है कि ऐसे मनुष्योंके लिए वैसा जीवन बिताना सम्भव नहीं है जिससे किसी व्यक्ति विशेषकी ही उन्नति सम्भव हो। जो भगवानकी सेवाके लिए ब्रह्मचर्य-व्रत लेंगे, ऐसे लोगोंको जीवनकी शिथिलताओंको छोड़ देना पड़ेगा और इस कठोर संयममें सुखका अनुभव करना होगा। वे दुनियामें भले ही रहें, परन्तु दुनियादार नहीं हो सकते। उनका भोजन, धन्धा, काम करनेका समय, उनका मनोरंजन, साहित्य और जीवनका उद्देश्य सर्वसाधारणसे अवश्य ही भिन्न होंगे।