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३७७. वीरोचित त्याग

त्रावणकोरसे एक सज्जनने एक उदात्त स्वार्थत्यागकी आँखों देखी घटनाका वृत्तान्त भेजा है:[१]

मैं कन्नड़ कृष्ण ऐयरके इस वीरतापूर्ण कार्यके लिए बधाई देता हूँ। उनका उदाहरण महाभारत कालके उन वीरोंकी याद दिलाता है जो मानवजातिकी सेवाके निमित्त अपनी जान जोखिममें डालनेमें बिलकुल संकोच नहीं करते थे।

[ अंग्रेजीसे ]
यंग इंडिया, २-९-१९२६

३७८. जीवनदायी शक्तिका संचय

पाठकगण मुझे नाजुक समस्याओंपर प्रकट रूपमें विचार करनेके लिए क्षमा करें। मुझे इनपर केवल खानगीमें ही बातचीत करनेमें खुशी होती। परन्तु मुझे जिस साहित्यका अध्ययन करना पड़ा है और श्री ब्यूरोकी पुस्तककी[२] आलोचनापर मेरे पास जो अनेक पत्र आये हैं, उनके कारण समाजके लिए इस परम महत्त्वपूर्ण प्रश्नपर प्रकट रूपसे विचार करना आवश्यक हो गया है। एक मलाबारी भाई लिखते हैं :

आप श्री ब्यूरोकी पुस्तककी समालोचनामें लिखते हैं कि एक भी उदाहरणसे यह पता नहीं चलता कि ब्रह्मचर्य-पालन व दीर्घकालके संयमसे किसीपर कोई हानिकर प्रभाव हुआ है। किन्तु मुझे तो अपने लिए तीन सप्ताह से अधिकका संयम ही हानिकारक मालूम होने लगता है। इसके बाद मुझे प्रायः शरीरमें भारीपनका तथा चित्तमें और अंगोंमें बेचनीका अनुभव होने लगता है, जिससे स्वभाव चिड़चिड़ा हो जाता है। आराम तभी मिलता है जब संभोग द्वारा या स्वयं प्रकृतिकी कृपासे स्वप्नमें अनिच्छापूर्वक वीर्यपात हो जाता है। दूसरे दिन सुबह शरीर व मनको कमजोरीका अनुभव करनेके बजाय में शान्त और हलका हो जाता हूँ और अपना काम अधिक उत्साहसे करने योग्य हो जाता हूँ।
किन्तु मेरे एक मित्रको तो संयमसे स्पष्टतः हानि ही हुई है। उनकी उम्र कोई ३२ सालकी होगी। वे पूर्णतः अन्नाहारी और बड़े धर्मिष्ठ पुरुष हैं। शरीर और मनसे वे हर तरहकी बुरी आदतसे बरी हैं। किन्तु फिर भी, दो साल पहलेतक उन्हें स्वप्नमें बहुत वीर्यपात होता था और उसके बाद
  1. यहाँ नहीं दिया जा रहा है। लेखकने लिखा था कि किस प्रकार पागल हाथीसे गिर कर घायल हुए फीलवानके प्राण बचानेके लिए एक असहयोगीने अपने शरीरका मांस दिया। मांस घायल फीलवानके घावमें भर दिया गया और उसके प्राण बच गये
  2. अनीतिको राहपर।