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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय


कर दिया है। उनकी सहायतासे में हिन्दू धर्मग्रन्थोंके गूढ़ अंशोंको अधिक अच्छी तरह समझ सका हूँ।

प्रच्छन्न ईसाई होनेका आरोप कोई नया आरोप नहीं है। यह मेरी निन्दा भी है और स्तुति भी। निन्दा इस दृष्टिसे है कि कुछ लोग समझते हैं कि भीतर-भीतर में ऐसा भी कुछ हो सकता हूँ- भीतर-भीतर इसलिए कि मैं बाह्यतः वैसा होनेसे भय खाता हूँ। किन्तु जिस क्षण ईसाई धर्मकी या किसी अन्य धर्मकी सत्यता मेरी समझमें आ जायेगी और मुझे उस धर्मकी आवश्यकता प्रतीत होगी, मैं उसी क्षण उसको अंगीकार कर लूंगा। मुझे उससे रोक सकनेवाली कोई भी वस्तु संसारमें नहीं है। जहाँ भयका अस्तित्व है, वहीं धर्म नहीं होता। यह आरोप, इस दृष्टिसे मेरी स्तुति है कि लोग ईसाई मतकी खूबियोंको समझनेकी मेरी क्षमताको (बेमनसे ही सही) कुबूल करते हैं। हाँ, एक बात मैं कुबूल करता हूँ । यदि मैं 'बाइबिल' या 'कुरान' को अपनी व्याख्याके अनुसार मानकर अपनेको ईसाई या मुसलमान कह सकूँ तो मुझे अपनेको ईसाई या मुसलमान कहनेमें जरा भी संकोच न होगा, क्योंकि उस हालतमें 'हिन्दू,' 'ईसाई,' और 'मुसलमान' ये शब्द पर्यायवाची ही हो जायेंगे। मेरा यह विश्वास है कि परलोकमें न कोई हिन्दू है, न ईसाई और न मुसलमान है। वहाँ सब केवल अपने कर्मोंका फल पाते हैं। उनकी अच्छाई या बुराईका निर्णय कर्मोंसे होता है । यह देखकर नहीं कि वे किस धर्मके हैं और उनकी मान्यताएँ क्या हैं। जबतक हम इस स्थूल संसारमें रहते हैं, तबतक हमारे ये छापे तो रहेंगे ही। इसलिए मुझे यह पसन्द है कि जहाँतक मेरे पूर्वजोंका धर्म मेरी उन्नतिको नहीं रोकता और जहाँतक वह मुझे अन्य धर्मोकी अच्छी-अच्छी बातें ग्रहण करनेसे भी नहीं रोकता, वहाँतक मैं अपने पूर्वजोंके ही धर्मको मानता रहूँ।

अतः पत्रप्रेषकोंने जिस उत्तेजनशीलताका परिचय दिया है उससे यही प्रकट होता है कि इस अभागे देशमें असहिष्णुताकी धारा कितने जोरसे बह रही है। मेरी सलाह है कि जो उसमें अडिग रह सकें वे अपने पैर अवश्य जमाये रखें।

[अंग्रेजीसे]
यंग इंडिया, २-९-१९२६